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हिन्दी के नाटककार
एक ओर तो वह प्राचीन भारतीय भक्ति में विह्वल प्रेम रूपकों की रचना करते हैं, दूसरी ओर प्राचीनता की खिल्ली उड़ाते हैं । यही नवीन प्राचीन का समन्वय उनकी कला की विशेषता है ।
देश-प्रेम की प्रेरणा
देश-प्रेम की भावना सर्वव्यापक रूप में, भारतेन्दु जी की अधिकतर कृतियों में सजग है। देश-प्रेम भारतेन्दु जी की कला के लिए सशक्त, ज्योतिमय और अमर प्रेरणा बना । भारत की भक्ति के पावन उद्देश्य को लेकर उन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की - भारतेन्दु जी ने अपनी लेखनी से देश-भर में राष्ट्रीयता का मंगल-मंत्र फूंका 'भारत - जननी', 'भारत-दुर्दशा', 'नील देवी' 'विषस्य विषमौषधम्' आदि में उनकी देश भक्ति बरसाती नदी के समान उमड़ चली है I
'भारत - जननी' में भारत की दयनीय दशा का बहुत ही करुणाजनक और हृदय विदारक चित्र उन्होंने खींचा है :
भयो घोर अँधियार चहूँ दिसि ता मँह बदन छिपाए । निरलज परे खोइ ग्रापुनपी जागतहू न जगाए || कहा करे इत रहिकै अब जिय तासों यह विचारा | छोड़ि मूढ़ इन कहँ अचेत हम जात जलधि के पारा ॥
कहकर भारत-लक्ष्मी चली जाती है । 'समुद्र के पार' अंग्रेज भारतीय धन-वैभव को उन दिनों ढोकर ले जाते थे । देश दीन-हीन होता जाता था । कितनी बेबसी थी ।
" एक वेर तो भला अपने मन में विचारों, निरवलंबा, शोक-सागर-मग्ना, अभागिनी अपनी जननी की दुरवस्था को एक बार तो आँखें खोल के देखो" भारत माता के ये शब्द वास्तव में भारतेन्दु के हृदय के ही उद्बोधन उद्गार है। अंत में भारत माता सबको धीरज देते हुए समझाती है, "हे प्यारे वत्सगण ! अब भी उठो और धैर्य के उत्साह और ऐक्य के उपदेशों को मन में रखकर इस दुखिया के दुःख दूर करने में तन-मन से तत्पर हो ।"
'भारत जननी' में भारत की दुरवस्था की बहुत द्वावक तस्वीर खींची गई है।
'भारत दुर्दशा' में प्रतीत गौरव की चमकदार स्मृति है, आँसू भरा वर्तमान है और भविष्य निर्माण की भव्य प्रेरणा है। इसमें भारतेन्दु का भारत - प्रेम करुणा की सरिता के रूप में उमड़ चला है: -- श्राशा की किरण के रूप में मिलमिला भी उठा है । भारत, दुर्दैव, दुर्दशा, सत्यानाश, निर्लज्जता,