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हिन्दी नाटककार पद्यात्मक संवाद बिलकुल समाप्त हुए । अवसरोपयुक्त गीतों का चलन बढ़ा। संवाद स्वाभाविक, और सजीव रसानुकूल और नाटकोचित तिखे गए।
अनेक अनुभव और प्रयोगों के पश्चात् 'प्रसाद' की नाट्य कला में विकास होता गया । क्रमशः उनका दृश्य-विधान सरलता की ओर बढ़ा है। 'प्रसाद' जी द्वारा इस युग में कला तथा टेकनीक के क्षेत्र में नवीन प्रयोग भी किये गए । एक-एक अंक को लघुनाटिकाए भी प्रसाद ने लिखीं । हिन्दी में एकांकी का जन्म प्रसाद-युग में ही हुा । 'ध्र वस्वामिनी' अभिनय की दृष्टि से अत्यन्त सफल रचना है। इसमें तीन अंक हैं और प्रत्येक अंक ही दृश्यनाट्य-कला में यह नवीन प्रयोग समझना चाहिए। प्रसादोत्तरकाल में इसो टैकनीक को लक्ष्मीनारायण मिश्र ने और भी विकसित करके आगे बढ़ाया।
चरित्र-चित्रण की ओर लेखकों का विशेष ध्यान जाने लगा । 'प्रमाद' के सभी नाटक श्रादर्शवादीवर्ग में प्रायंगे; पर उनमें चरित्रों का उद्घाटन भी बहुत सफलता से हुआ है । बाह्य और अान्तरिक दोनों संघर्षों की प्राग में तपते, तिलमिलाते, चीत्कार करते, गिरते-संभलते पात्र इस युग के नाटकों में पाये जाते है । राष्ट्र-निर्माण के नशे में चूर चाणक्य भी अपने हृदय की बेचैनीभरी धड़कन सुनाता है। अपना वक्ष चीर दिखाना है । चन्द्रगुप्त और कल्याणी के चरित्रों में भी उतार-चढ़ाव है। स्कन्दगुप्त, देवसेना, विजया, अनन्तदेवी, भटार्क आदि में तो चरित्र का पूर्ण विकास और स्वाभाविकता लक्षित है । 'विक्रमादित्य' का भी इस दृष्टि से उल्लेख किया जा सकता है। इस युग के सभी नाटकों में चरित्र-विकास के पर्याप्त लक्षण मिल जायंगे।
'प्रसाद' के भी कुछ नाटकों को सम्मिलित करते हुए, इस युग के नाटकों में अभिनय तत्व का भी विकाप देखने में आता है। कार्य-व्यापार नाटक की जान है-अभिनय का एक मुख्य अंग। प्रसाद-युग के नाटकों में कार्यव्यापार काफी मात्रा में मिलता है । रंगमंच और माहित्य का मेल कराने की भोर भी सजगता पाई जाती है। 'दयानन्द', 'महात्मा ईसा', 'वरमाला', 'प्रताप-प्रतिज्ञा', 'राज-मुकुट', 'ध्र वस्वामिनी' आदि में दोनों विशेषताएं मिलेंगी।
देश की विभिन्न सामाजिक तथा राष्ट्रीय आवश्यकताओं की ओर भी इस युग के नाटकों का ध्यान है। वे अपने देश की माँग के प्रति सजग है। अनेक नाटकों में इस माँग का उत्तर भी है। राष्ट्रीय भावना की सभी नाटकों में स्पष्ट छाप है । 'महात्मा ईसा' भी इससे अछूता नहीं । 'प्रसाद' के सभी नाटक राष्ट्रीय गौरव के प्रकाश-स्तम्भ हैं। अन्य लेखकों के नाटक भी युग की इस चेतना से ओत-प्रोत है। 'ध्र वस्वामिनी' द्वारा सामाजिक समस्या