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हिन्दी के नाटककार जाति के थे । कुछ दिन दिल्ली में रहकर एक प्रेस चलाया और । बाद में कलकत्ता चले गए । अन्त में बम्बई में बस गए । वहीं इनकी मृत्यु हुई। हरिदास माणिक
माणिक महोदय एक सफल अभिनेता से नाटक-लेखक बने । इन्होंने 'सत्य हरिश्चन्द्र' में शैव्या, 'राणा प्रताप' में वीरसिंह और अफीमची, 'पाण्डवप्रताप' में ढोलक शास्त्री, 'कलियुग' में घसीटासिंह और 'संमार-स्वप्न' में बेटा दीना का सफल और शानदार अभिनय करके दर्शकों के हृदय को जीत लिया था। इनके अभिनय से सामाजिक इतने प्रसन्न थे कि इन पर रुपयों और गिन्नियों की बौछारें होती थीं। यह गीत के अच्छे ज्ञाता थे। काशी के निवासी थे और वहीं एक स्कूल में अध्यापन का कार्य करते थे। इन्होंने तीन नाटकों 'संयोगिता हरण' या 'पृथ्वीराज', 'पाण्डव-प्रताप या युधिष्ठिर' और 'श्रवण कुमार' की रचना की । ये नाटक क्रमश: १६१५, १६ १७ और १९२० ई० में लिखे गए। ___ 'संयोगिता-हरण' और 'पाण्डव-प्रताप' अत्यन्त सफल नाटक हैं। दोनों में तीन-तीन अंक हैं। दोनों के नामों से ही विषय का पता चलता है । पहला ऐतिहासिक और दूसरा पौराणिक है। पहले नाटक में तीनों अंकों में क्रमशः ६, ४ तथा ३ दृश्य हैं। दूसरे में क्रमशः ८-८ तथा ५ दृश्य हैं। 'पाण्डवप्रताप' युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से प्रारम्भ होता है। जरासंध-बध, उसके लड़के सहदेव को मगध का स्वामी बनाना, शिशुपाल-वध आदि इस नाटक की विशेष घटनाएं है। 'संयोगिता-हरण' में सभी घटनाए चिर-परिचित और इतिहास-प्रसिद्ध है। केवल अन्त में जयचन्द द्वारा दहेज भी भेजने की घटना नवीन कल्पना है । इसमें दोनों का समझौता-सा हो जाता है ।
नादक संस्कृत ढंग से लिखा गया है। मङ्गलाचरण, सूत्रधार, भरत-वाक्य श्रादि सभी दोनों नाटकों में है। अङ्क गानों से प्रारम्म होते हैं। दोनों नाटक सुखांत है । श्राशीर्वाद से दोनों का अन्त होता है। दृश्य सफाई से बदलते हैं। स्टेज खाली क्षण-भर को भी नहीं रखा जाता । अभिनय की दृष्टि से दोनों नाटक सफल हैं ही, इनकी भाषा श्रादि भी बहुत ठीक है। शुद्ध और परिमानित पद्य भी हैं । संधाद चुस्त, गतिशील पात्रोचित और सशक्त हैं । कहींकहीं संवाद बहुत लम्बे हो गए हैं, यह नाटकों में है । कथावस्तु का विकास भी स्वाभाविक है और चरित्र-चित्रण भी ठीक है। इन नाटकों की विशेषता