________________
रंगमंचीय नाटककार
२५६
अपने समय के सबसे अधिक प्रतिभाशाली नाटककार थे । घटनाओं की योजना, कथा का प्रवाह, कौतूहल, विस्मय और रसपरिपूर्णता इनके नाटकों में पूरी-पूरी मात्रा में हैं । इनके नाटकों की घटनावली आदि से दर्शक मुग्ध हो जाता हैं । वे एक-दूसरे से ऐसी सम्बद्ध होती हैं कि एक श्रृङ्खला बन जाती है । इनके नाटकों में नाटकीयता ( आकस्मिकता) खूब पाई जाती है | चरित्र-चित्रण भारतीय नाट्य-शास्त्र की परिभाषा के अनुसार होता है । सज्जन और दुर्जन दोनों के चरित्र अन्तिम सीमा तक पहुँचे हुए होते हैं । हर पात्र अपने वर्ग का चरम विकास होता है । सत् और असत् का संघर्ष इनके नाटकों की विशेषता है । वह संघर्ष भी इतना कसा हुआ रहता है कि दर्शक साँस रोककर अनेक घटनाएं देखता है । वह रोमांचित होता है, शठनायक से उसका विरोध और नायक से उसकी सहानुभूति बड़ी तीब्र मात्रा में हो जाती है ।
संवाद जोशीले, रसपूर्ण, चलते हुए, प्रवाहयुक्त और सशक्त होते हैं । पद्य-संवाद इनके प्रत्येक नाटक में मिलेंगे । स्वगत भी रहता है । पारसीरंगमंच के युग की सभी विशेषताएं इनके नाटकों में पाई जाती हैं । उस युग के नाटकों की कथावस्तु में सबसे बड़ा दोष यह होता था कि प्रधान कथा के बीच में ही एक स्वतंत्र कथा चलती थी । कभी-कभी उसका तनिक भी संबंध नाटकीय कथा से नहीं होता था । यह दोष इनके भी नाटकों में मिलता है | कभी-कभी हास्य का समावेश नाटक में करने के लिए पौराणिक नाटकों में आधुनिक जीवन की मज़ाकिया कहानी भी जोड़ दी जाती थी, यह भी दोष इनके नाटकों में है । हास्य भी कुछ स्थलों पर भौंडा और छिछले ढंग का होता था । इससे सुरुचिपूर्ण दर्शकों को वह बहुत
खटकता था ।
इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि आगा हश्र अपने युग के रंगमंचीय नाटककारों के शिरोमणि थे । उर्दू नाटकों के साथ ही हिन्दी नाटक भी यह पारसी स्टेज पर लाये और समान सफलता के साथ । पौराणिक, ऐतिहासिक, और आधुनिक सभी प्रकार के नाटक इन्होंने पूरी-पूरी सफलता से लिखे । श्र रंगमंच के गौरव थे ।
राधेश्याम कथावाचक
राधेश्याम कथावाचक उत्तर भारत के गाँव-गाँव में प्रसिद्ध हैं । इन्होंने सीधी-सादी बोज - चाल की हिन्दी में रामायण की रचना की । एक युग था,