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रंगमंचीय नाटककार माधव शुक्ल
श्री माधव शुक्ल का नाम हिन्दी-रंगमंच के निर्माण और उसकी उन्नति के क्षेत्र में अत्यन्त गौरव और श्रद्धा से लिया जाता है। इन्होंने प्रयाग, लखनऊ, जौनपुर, कलकत्ता श्रादि नगरों में घूम-घूमकर हिन्दी-रंगमंच की स्थापना के लिए अनथक परिश्रम किया था। कलकत्ता में आज भी इनके द्वारा स्थापित अन्यवसायी नाटक-समाज जीवित है और उसके द्वारा अनेक साहित्यिक नाटक अभिनीत होते रहते हैं। इन्होंने समाज में अभिनय की रुचि और अभिनेताओं के सम्मान को भी जगाया। इन्होंने स्वयं भी दो नाटक-'सीय-स्वयंवर' और 'महाभारत पूर्वार्ध'-लिखे । दोनों नाटक रंगमंच और साहित्य की दृष्टि से अच्छे हैं। इनका कार्य-काल सन् १८६५ से १६२० तक समझना चाहिए । 'सीय-स्वयंवर' और 'महाभारत' इन दोनों नाटकों का अभिनय भी कई बार किया गया । आगा हश्र कश्मीरी
नाटक-मण्डलियों के युग में आगा हश्र सबसे प्रसिद्ध नाटककार रहे। यह 'न्यू एलड थिएट्रिकल कम्पनी' में नाटक-लेखक थे। यह कुशल अभिनेता भी थे । इसीलिए इनके नाटक रंगमंच की दृष्टि से अपने युग की सर्वप्रिय रचनाएं रहे । उर्दू में इनके लगभग १६ नाटक हैं। शेक्सपीयर के नादकों के अनुवाद भी इन्होंने किये । लेकिन अनुवाद में घटनाए और उनके ढाँचे तक बदल डाले गए हैं। हिन्दी में भी इन्होंने पूरी सफलता से 'सूरदास' 'गंगा औतरण', 'वनदेवी', 'सीता-वनवास', 'मधुर मुरली', श्रवणकुमार','धर्मीबालक', 'भीष्म-प्रतिज्ञा', 'आँख का नशा' इत्यादि नाटक लिखे । हश्र का अधिकार उर्दू और हिन्दी पर समान रूप से था। उनके हिन्दी के नाटकों में भी भाषा का वही पोज, वही प्रवाह, वही चलतापन, वहीभ विमयता और वह सशक्तता मिलती है, जो उर्दू में।