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हिन्दी के नाटककार
प्रायः घटना-प्रधान हैं, परिस्थिति-प्रधान नहीं-पर ही प्रकाश डाला गया है। समाज के भीतरी घुन और भीतर-ही-भीतर पकने वाले फोड़े पर उनका ध्यान नहीं गया।
सामाजिक नाटकों में जीवन की अन्य छोटी-छोटी समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। विवाह, जाति-पाति ऊँच-नीच, सामाजिक वैषम्य, नेताओं का स्वार्थ, ग्राम-जीवन को स्वस्थ बनाना आदि की ओर भी लेखक ने संकेत किया है।
पात्र--चरित्र-चित्रण पात्रों की विभिन्नता वर्मा जी के नाटकों में मिलेगी-अनेक काल और जीवन की कथाए इनके नाटकों में हैं। पात्र और परिस्थितियाँ भी अनेक हैं और विभिन्न भी। 'पूर्व की ओर', 'बीरबल', झाँसी की रानी' और 'काश्मीर' का काँटा' में ऐतिहासिक पात्र हैं। इन सभी नाटकों के पात्रों में वीरता, निर्भयता, युद्ध-कौशल, कष्ट-सहिष्णुता, त्याग श्रादि गुणों का ही विकास प्रायः मिलेगा। अश्वतुङ्ग, बीरबल, अकबर, लक्ष्मीबाई, राजेन्द्र सिंह-सभी में किसी-न-किसी रूप में समानता पाई जायगी। इन नाटकों के पात्रों में चरित्र का विचित्रपन, दुविधा, अन्तद्वन्द्व, सघनता, अात्म वेदना और दानवीय यथार्थताए कम ही देखने को मिलेंगी। पुरानी-चिर विश्रत परम्परा और बनी-बनाई लकीर पर ही इनके ऐतिहासिक पात्र प्रायः बँधे-बंधे-से चलते हैं। वे सभी आदि से अन्त तक समान गुणों को लेकर चले हैं। उनमें परिस्थितियों की प्रेरणा और मानसिक संघर्ष से किसी विशेष रंग की चमक पैदा नहीं होती।
ऐतिहासिक नाटकों के पात्रों की भारी भीड़ में 'बीरबल' के जसवन्त और 'पूर्व की ओर' की धारा में अवश्य बहुत कुछ परिश्रम किया गया हैपर वे पात्र भी ऐसे नहीं कि चरित्र-वैचित्र्य में कोई लकीर खींच सके। हाँ, वे अन्य पात्रों से भिन्न और नई रंगीनी लेकर अवश्य हमारे सामने श्राते हैं। 'पूर्व की ओर' में अश्वतुङ्ग का चरित्र बहुत विकसित किया जा सकता था। गोमती में भी नई जान डाली जा सकती थी, पर यह कुछ भी वर्मा जी न कर सके । कहीं-कहीं बीरबल के चरित्र में गम्भीर हास्य का प्रकाशन है। बीरबल में इससे नये प्राण आ गए हैं। ___ "अकबर-परन्तु नर-हन्या कोई-न-कोई तो करता ही रहेगा। मनुष्य प्रापस में बिना लड़े नहीं मानते । बचपन से बुढ़ापे तक यही होता रहता है।