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हिन्दी के नाटककार भोलापन, समर्पण और प्रात्माभिमान सभी तो उसमें हैं । लक्ष्मण का चरित्र भी दिव्य है।
कला की दृष्टि से शर्मा जी के नाटकों में सबसे अधिक खटकने वाली बात है स्वगत-भाषण । जब शर्मा जी ने नाटक लिखने प्रारम्भ किये, हिन्दी में नाटक-कला का काफी विकास हो चुका था। फिर भी वह स्वगत भाषण को अस्वाभाविकता और व्यर्थता न समझ सके । 'दुविधा'-जैसे छोटे नाटक में सुधा का लगभग पौने दो पेज तक का स्वगत है। और ऐसे भद्दे स्वगत भी हैं- .
___ "सुधा (स्वगत) -अच्छा यह बात है। उफ ! कितना झूठ बोला है केशव ने मुझसे (प्रकट) क्या आपने फिर कभी केशवदेव जी को मनाने की कोशिश भी की ?"
'अपराधी' और 'उर्मिला' में ऐसे भद्दे स्वगत नहीं है । 'अपराधी' में स्वगत कम हुए, पर उर्मिला' में वे फिर वृद्धि पा गए सभी नाटकों में स्वगत एक और भी अरुचिकर रूप में पाया है। दृश्य के अन्त में पात्रों के प्रस्थान पर एक प्रमुख पात्र रह जाता है और उसके स्वगत-भाषण से दृश्य का अन्त होता है । कभी-कभी दृश्य का प्रारम्भ भी स्वगत से किया जाता है। कहींकहीं तो जो बात घटना या चरित्र से स्पष्ट हो चुकी है उसे स्त्रगत के द्वारा फिर सूचित किया जाता है। अपराधी' के प्रथम अङ्क के तीसरे दृश्य में जैसे चोर का स्वगत 'उर्मिला' में स्वगत अन्तद्वन्द्व को प्रकट करने के लिए काफी मात्रा में पाया है। इससे चरित्र प्रकाशन का काम भी लेखक ने लिया है। _संवाद अधिकतर संक्षिप्त और चुस्त हैं। भाषा सरल और सरस है। कहीं भाषा-सम्बन्धी दोष भी नज़र आ जाते हैं। "पक्षी कलरव गा रहे थे, होश आई, मिसेज कपूर के हाँ चलना है, हृदय में बवडर छिड़ा है" श्रादि दोषपूर्ण प्रयोग हैं। 'उर्मिला' में उर्मिला के मुंह से भरत को बार-बार भैया कहलाना और सुमित्रा-उर्मिला-संवाद (अङ्क ३ दृश्य १) सांस्कृतिक दोष है। वैसे शर्माजी के नाटकों में दोष कम हैं और गुण अधिक ।
अभिनेयता शर्माजी के सभी नाटकों का दृश्य-विधान अत्यन्त सरल, सीधा-सादा अभिनयोचित है। इनके सभी नाटकों का सरलता से अभिनय किया जा सकता है। इनके नाटकों में प्रायः तीन अङ्क होते हैं। सभी नाटक संक्षिप्त हैं। 'दुविधा' ६७, 'अपराधी' ७१ और 'उर्मिला' ७७ पृष्ठ का है। किसी भी