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उदयशंकर भट्ट
१८६ निर्दोष नाटक हैं । 'मुक्ति-पथ' के गीत भी अस्वाभाविक नहीं। ___ भट्टजी के नाटकों में गीतों का समावेश अधिकतर निरर्थक है । अनेक गीत केवल इसलिए दिये गए हैं कि नाटक में गीत रखने का रिवाज है। 'दाहर' के सभी गीत प्रायः निरुद्देश्य हैं । पहले अंक के दूसरे दृश्य में सोमेश्वर डेढ़ पृष्ठ का स्वगत-भाषण करके एक गीत गा देता है और दृश्य के अन्त में भी अकेला रह जाने पर एक गीत और अलाप देता है। तीसरा दृश्य विक्रमादित्य के गीत से प्रारम्भ होता है और थोड़ा स्वगत-भाषण करके फिर एक राग अलापने लगता है। दूसरा अंक चन्द्रलेखा के गीत से प्रारम्भ होता है। केवल यही गीत चरित्र, पात्र, स्थिति और अनुरोध की बहुत बड़ी मांग पूरी करता है । शेष सभी गीत बे-लंगे, निरुद्देश्य, दोषपूर्ण, अगेय और ऊटपटाँग हैं। न उनमें हृदय की कोई कोमल भावना है, न संगीत, न स्वर और भाषा की स्वच्छता। ___ 'दाहर' के पद्यों और गीतों के विषय में भी यही बात समझनी चाहिए। पारसी-रंगमंचीय नाटकों में जिस प्रकार संवाद के अंत में पद्य बोलने की परम्परा थी, इसी प्रकार 'दाहर' में भी गद्य-संवाद के बाद में पद्य रखे गए हैं। पहले अंक के दूसरे दृश्य के अंत में दाहर दो पृष्ठ का स्वगत-भाषण करके पद्य बोलता है:
“यह भूल अज्ञता का फल है, जो अवसर के तरु पर फूली । - वह सदा चुभी काँटा बनकर, वे भूलें आजीवन भूलीं ॥"
और कासिम को विदा देते हुए हैजाज के दरबारी कवि का आशीर्वाद भी देखियेः
"हे अरब-दुलारे जानो, दुश्मन को खूब छकायो, निज देश, धर्म की रक्षा, करना बढ़-बढ़कर लड़ना । मत पीछे कदम हटाना, मत दॉये-बायें जाना,
दुनिया को रंग दिखाना सब अपना देश बनाना ।" 'दाहर' में तो और भी कमाल यह है कि 'दाहर' के पात्र ‘भारतेन्दु' और 'बेनी' के पद्य भी दोहराते हैं । लेखक को समय का भी ज्ञान नहीं। उस युग के पात्र १२ सौ वर्ष बाद उत्पन्न होने वाले कवियों की कविताए भी याद कर लेते हैं-यह सचमुच कमाल है। ___ ''सगर-विजय' में गीत कम हो गए हैं। उपयोग वही है। वैसे ही लम्बीलम्बी कविताएं हैं। उनका उपयोग भी वही है। या तो दृश्य का प्रारम्भ गीत से होता है या अन्त गीत से। उकताने वाला लम्बा भाषण सुनने को