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उदयशंकर भट्ट
१८१ के प्रति उसकी घृणा, अरुचि, दुष्कामना, रोष, क्रोध आदि बने रहते हैं। भट्टजी के नायकों और शठनायकों के प्रति हमारी परम्परागत भावनाए उत्तेजित रहती हैं । नायकों के कष्ट पर हमारी संवेदना और करुणा जगती है। उनकी विजय पर हमें आनन्द मिलता है। उनकी सफलता पर उल्लास होता है । शठनायक पर विपत्ति पड़ने पर हमें सुख मिलता है। उनकी सफलता या विजय पर हमें दुःख होता है। उनके व्यवहार से हम घृणा करते हैं । यही रसानुभूति है। ____ 'कमला' को छोड़कर नारी-पात्रों को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं । एक तो निर्भय वीरांगनाए, दूसरी शीलवती सुकुमारमना पति-परायणा,
और तीसरी ईर्ष्यालु रोषवती प्रतिशोध से पागल । 'दाहर' को परमाल और सूरज अपने देश पर मरने वाली और देश के अपमान का बदला लेने वाली वीरांगनाएं हैं। 'विक्रमादित्य' की चन्द्रलेखा और अनंग मुद्रा प्रीतम की रक्षा के लिए युद्ध-क्षेत्र में अपना गौरवशाली बलिदान देने वाली हैं। विशालाक्षी और गोपा कोमल-मना पति-परायणा भोली-भाली नारी हैं और बर्हि क्रोध और प्रतिशोध से जर्जर ईर्ष्या से पागल नारी है।
अन्य नाटकीय तत्त्वों की अपेक्षा चरित्र-चित्रण भट्टजी के माटकों में सफलता के साथ हुआ है। पात्रों के ऐतिहासिक और पौराणिक होते हुए भी भट्ट जी ने उनके चरित्र काफी विकसित दिखाए हैं । उनके पास मनुष्य का हृदय है । इतिहास और परम्परा की संकुचित गलियों में चलने वाले पात्र भी अपने पास सुख-दुःख, ईर्ष्या-घृणा और अनुभव प्रकट करने वाले हृदय रखते हैं । 'विक्रमादित्य' पर यद्यपि 'प्रसाद' के स्कन्दगुप्त की स्पष्ट छाया है, पर अन्य नाटकों में भट्ट जी स्वतंत्र हैं।
विक्रमादित्य स्वभाव से ही दार्शनिक है । राज्य भोगते हुए भी उदासीन है, "रात और दिन की चरखी पर प्रोटी जाने वाली जीवन की कला रूपी रुई क्षण-क्षण घटती जाती है । बाल्यावस्था और यौवन के पाशांकुर से हम नाश में सुख का अनुभव करते हैं। .....'जीवन क्या है, गाढ़ान्धकार में क्षणिक प्रकाश । जिसके दोनों प्रोर उत्पति और विनाश के दो किनारे हैं। पूर्व के दो किनारे हैं। उत्पत्ति से पूर्व और विनाश के बाद इस आत्मा की क्या परिभाषा है, यह कौन जाने।"
पर उत्कट काम-वासना के समान राज्य-लिप्सा को धिक्कारने वाला विक्रम कर्तव्य के लिए जागरूक है, "कर्तव्य-पालन के लिए उस विद्रोह को दबाना ही होगा।" विक्रमादित्य क्षमाशील है-राज्य से उदासीन और वैभव से विमुख