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आलोक उछल-कूद, चिल्लाना, अंगों का सक्रिय संचालन ही इस युग के अभिनय की विशेषता थी । भारत में ही स्वाँग आदि में मुखों पर चेहरे लगाये जाते हैं। खूब उछलना-कूदना और दहाड़ना इनकी विशेषता है।
भारत में यूनान से बहुत समय पहले नाटक का जन्म और विकास हो गया था। ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व यहाँ भास-जैसे प्रतिभाशाली कलाकार के तेरह नाटक प्रसूत हो चुके थे। भास के समकालीन पश्चिमी नाटककार इतने सुन्दर कलापूर्ण, विकसित, जीवन की विविधता से मुक्त नाटक नहीं लिख सके भारत और यूरोप-दोनों ही भू-खण्डों में नाटक पर धर्म का प्रभाव रहा है। भास के तेरह नाटकों में से सात महाभारत, दो रामायण, दो इतिहास
और दो समाज के कथानकों के आधार पर लिखे गए हैं। कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' और 'अभिज्ञान शाकुन्तल' पर भी परलोकवाद का बहुत प्रभाव है। अश्वघोष का 'सारे पुत्र-प्रकरण' और अन्य दोनों नाटक बौद्ध-धर्मसम्बन्धी हैं। भवभूति का 'उत्तर-राम-चरित्र' और 'महावीर-चरित्र' रामायण से कथा लेकर लिखे गए। धर्म का प्रभाव होते हुए भी भारतवर्ष में सामाजिक जीवन को चित्रित करने का प्रयत्न प्रारम्भ से ही हुआ। भास का 'चारुदत्त' इसका प्रमाण है। भारत में नाटक पर धर्म का अातंक नहीं, प्रभाव रहा--- उसे प्रेरणा मिली।
कालिदास के युग में यूरोप में एक भी ऐमा प्रतिभाशाली नाटककार नहीं हुश्रा, जिसकी तुलना कालिदास से की जा सके । भवभूति के विषय में भी यही कहा जा सकता है। 'अभिज्ञान शाकुन्तल' और 'उत्तर राम-चरित्र' दोनों हो विश्व-साहित्य की महान् विभूतियाँ हैं। इन दोनों महाकवियों के द्वारा भारतीय नाटय-कला विकास के शिखर पर आरूढ़ हुई । इनके नाटकों में चरित्रचित्रण, अभिनय, रस, कथानक, कार्य व्यापार श्रादि सभी नाटकीय तत्त्वों का विकास मिलता है । कला की दृष्टि से कालिदास के 'शाकुन्तल' के समान उस युग में एक नाटक यूरोप में नहीं रचा जा सका । भारत में ग्यारहवीं शताब्दी तक संस्कृत-नाटक-परम्परा चलती रही। बारहवीं शताब्दी का प्रथम संस्कृत नाटक साहित्य के पतन का अभिशाप लिये श्राया। जब यूरोप में नाटक उन्नति के पथ पर अग्रसर हुआ, भारतीय नाट्य-साहित्य विनाश-निद्रा की गोद में बेसुध हो चुका था।
यूरोप में रेनेसाँ-युग में नाटकों से धर्म का अातंक कम हो गया। इसमें प्राचीन नवीन का मनोहर सामञ्जस्य देखने को मिलता है। प्रेम-कथाए नाटकों में श्राने लगीं; पर अभिजात-कुल के स्त्री-पुरुषों का चित्रण हो इनमें