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संक्षिप्त इतिहास]
७६ भगवान् के गुणों और उनके जीवन की मुख्य घटनाओं अथवा स्थानविशेष में स्थित उनकी प्रतिमाओं और मंदिरों का वर्णन दिया हुआ है। जैन भक्तिवाद वीरपूजा का दूसरा नाम है और इन स्तोत्रों से यह स्पष्ट है कि मध्यकालीन जैनी उपासना के आदर्श को भूले नहीं थे।
कविवर श्री राजमल्लजी पांडे जैनसाहित्यगगन के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। उन्होंने संस्कृत, अप्रभंश प्राकृत और हिन्दी तीनों ही भाषाओं में रचनायें की थीं। वह कवि राजमल्ल के नाम से प्रसिद्ध थे। वह अपने नाम के साथ "स्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारद" विशेषण का प्रयोग करते हुए मिलते हैं। किन्तु खेद है कि इससे अधिक उन्होंने अपने विषय में कोई परिचय नहीं दिया है। इस अभाव की पूर्ति किसी अन्य स्रोत से भी नहीं होती और इस अवस्था में कविवरजी का जीवनचरित्र अज्ञात क्षितिज में ही विलीन रहता है । हाँ, इसके विपरीत उनका पाण्डित्य सूर्य के समान प्रखर और सर्वव्याप्त है । प्रो० जगदीशचंद्र उनके विषय में लिखते हैं कि "कवि राजमल्ल की रचनाओं के ऊपर से मालूम होता है कि आप जैनागम के बड़े भारी वेत्ता एक अनुभवी विद्वान थे। आपने जैन वाङ्मय में पारंगत होने के लिये कुन्दकुन्द समन्तभद्र, नेमिचन्द्र, अमृतचन्द्र आदि विद्वानों के ग्रन्थों का विशाल तथा सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन और आलोडन किया था। पं० राजमल्ल केवल आचारशास्त्र के ही पण्डित न थे, बल्कि इनने अध्यात्म, काव्य और न्याय में भी कुशलता प्राप्त की थी, यह आपकी विविध रचनाओं से स्पष्ट मालूम होता है।" वैसे कवि राजमल्लजी भ० हेमचन्द्रजी काष्ठा