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संक्षिप्त इतिहास
२५१ कुछ समय के लिये जाकर रहे थे या उन स्थानों से होकर वह दिल्ली की ओर गये थे। संभव है कि वह उदासीन श्रावक हों
और यत्र तत्र विहार करके उन्होंने जीवन बिताया हो। उनकी रचनाओं में 'सीतासतु' विस्तृत कृति है, जिसे उन्होंने सं० १६८४ में लिखा था। मैनपुरी के गुटका में जो रचनायें आपकी दी हुई हैं, वे इन ग्रन्थों से पहले की रची हुई हैं। 'सीतासतु' में बारह मासा के मंदोदरी-सीता प्रश्नोत्तर के रूप में रावण और मंदोदरी की वित्तवृत्ति का परिचय देते हुये सीता के दृढ़तम सतीत्व का अच्छा चित्रण किया गया है। पं० परमानंद जी लिखते हैं कि 'रचना सरल और हृदयग्राही है तथा पढ़ने में रुचिकर मालूम होती है ।' दूसरी रचना 'अनेकार्थनाममाला' एक पद्यात्मक कोष है, जिसमें एक शब्द के अनेक अर्थों को दोहा छंद में संग्रह किया गया है। तीसरी रचना 'मृगांकलेखा-चरित्र' में चंद्रलेखा
और सागरचन्द्र के चरित्र का वर्णन करते हुए चंद्रलेखा के शीलव्रत का महत्त्व स्थापित किया है। उन्होंने इस ग्रंथ को हिसार नगर के भ० बर्द्धमान के मंदिर में विक्रम सं० १७८० में पूर्ण किया था।
कविवर बनारसीदास जी (पृ० ११०-१२४ ) की एक अन्य रचना 'ज्ञानसमुद्र' नामक बतायी जाती है। इसकी एक जीर्ण प्रति जो लगभग ३०० वर्ष की पुरानी होगी कुर्गचित्तरपुर (जिला आगरा) के शास्त्रभंडार में पं० भैयालाल जी शास्त्री ने देखी है। उस प्रति के विषय में प्रयत्न करने पर भी कुछ विशेष ज्ञात नहीं हुमा । अतः यह नहीं कह सकते कि यह रचना कैसी है और किन कवि बनारसीदास जी की है।
-कामताप्रसाद जैन