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कालक्रमानुसार उसका संक्षित परिचय इस पुस्तक में दिया है । यद्यपि भिन्न-भिन्न कवियों और काव्यों का मूल्य आँकने में उनके जो विचार हैं उनसे पाठकों का मत-भेद हो सकता है, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि दो दृष्टियों से यह नयी सामग्री बहुत ही उपयोगी हो सकती है, एक-तो हिन्दी के शब्द भण्डार की व्युत्पत्तियो की छानबीन करने के लिए और दूसरे साहित्यिक अभिप्रायों (मोटिफ ) और वर्णनों का इतिहास जानने के लिए | अब वह समय या गया है जब ऐतिहासिक दृष्टिकोण से प्रत्येक शब्द के विकास को ढूँढना श्रावश्यक है । शब्द और अर्थ दोनों का विकास ऐतिहासिक पद्धति पर बने हुए हिन्दी - कोप के द्वारा ही हमें ज्ञात हो सकता है । किस शब्द ने हिन्दी में किस समय प्रवेश किया और कैसे कैसे उसका रूप बदलता गया एवं ग्रर्थ की दृष्टि से उसमें कितना विस्तार, संकोच या परिवर्तन होता रहा, इन बातों पर प्रकाश डालने के लिए हिन्दी के ऐतिहासिक शब्दकोष की बड़ी श्रावश्यकता है । जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में डॉ० मरे द्वारा सम्पादित 'क्सफोर्ड महाकोप' में समस्त अंग्रेजी साहित्य से हर एक शब्द की क्रमिक व्युत्पत्ति और अर्थ - विकास का वे किया गया है, इसी प्रकार प्रत्येक हिन्दी शब्द की निज-वार्ता या अन्तरङ्ग ऐतिहासिक परिचय के लिए हमें हिन्दी साहित्य के अंग-प्रत्यंग एवं समस्त प्रकाशित और अप्रकाशित ग्रन्थों की छानबीन करनी होगी । इस कार्य के लिए जैन साहित्य की बहुत बड़ी उपादेयता है ! यह साहित्य अभी तक बहुत कुछ प्रकाशित है । इसके प्रकाशन के लिए सबसे पहले प्रयत्न होना चाहिए । धार्मिक भावुकता से बचकर ठोस साहित्यिक समीक्षा की दृष्टि से इन ग्रन्थों का सम्पादन आवश्यक है ।
अब यह बात प्रायः सर्वमान्य है कि हिन्दी भाषा को अपने वर्तमान स्वरूप में आने से पहले अपभ्रंश-युग को पार करना पड़ा । वस्तुतः शब्दशास्त्र और साहित्यिक शैली दोनों का बहुत बड़ा वरदान अपभ्रंश भाषा से हिन्दी को प्राप्त हुआ है | तुकान्त छन्द और कविता की पद्धति अपभ्रंश की ही देन है। हमारी सम्मति में अपभ्रंश काव्य को हिन्दी से पृथक्