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सइता, न पारए होइहूसंपराए” १ ॥ अस्यार्थः, घणां काल लगते पासत्था साधु लोच करावता रहा, परन्तु अथिर है तेहनां महा ब्रत अर्थात तोड़ दिये हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील धन संचय के त्याग रूप महाव्रत और छत्ती | सक्त आठ चौदस पक्षी के ब्रत वेलादि तप
से और रसना के गृधी विषय आदिक के त्याग से और उभय काल आवश्यकादि नियम से भ्रष्ट है ते पुरुष नां घणे वर्षों का || लोचादि कष्ट का सहना क्लेश रूप है क्योंकि नहीं पार पावै ( हू०) इति निश्चय करके जन्म मरण रूप संसार का, इत्यर्थः । सो इत्यादि शिक्षा देके संयम में स्थिर करा देवे | और जो इतने पर भी न माने तो उस का || भेष उतरवा देवे क्योंकि भेष सहित में तो
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