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( २५०. )
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सइता, न पारए होइहमंपराए" १॥ अस्यार्थः, वणां काल लगते पासत्या साधु लोच कगबना रहा, परन्तु अधिर है तेहनां महा व्रत अर्थात तोड़ दिये हिंसा, झूट, चोरी, कुशील धन संचय के त्याग रूप महाव्रत और छत्ती सक्त आट चोदस पक्षी के व्रत वेलादि तप मे और रसना के गृधी विषय आदिक के त्याग मे और उभय काल आवश्यकादि नियम से भ्रष्ट है ते पुरुष नां घणे चपा का लोचादि कष्ट का सहना क्लेश म्प है क्योंकि नहीं पार पावे ( इ० ) इति निश्चय करके जन्म सरण रूप संसार का, इत्यर्थः । सो इत्यादि शिना देके संगम में स्थिर कग देने
और जो इतने पर भी न माने तो उम का भेष उतखा देवे क्योंकि भेष सहित में तो
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