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बड़ाई तो लिया चाहते हो परन्तु दुर्गति से न बचोगे क्योंकि यह शेखी तो है ही नहीं कि मैं तो भेष धारक साधु हुं इसलिये दुर्गति में कैसे पढूंगा अपितु भेष से तथा चतुराई से तो कर्म निष्फल नहीं होते हैं यथा दोहा घर त्यागा तो क्या हुआ तज्यो न माया संग । सप्प तजी ज्यों कांचली जहर तज्यो नहीं अंग ॥ १॥ भेष बदल के क्या हुआ गयो विष्ण कहुं नाह । व्यभचारिणी पड़दा किया पुरुष पराया माह ॥२॥ सो हे साधो ! तुम लोच का करना और शीत ताप का सहना क्यों भांग के भाड़े खोते हो यथा उत्तराध्यन सूत्रम् अध्ययन २० वां गाथा ४१ वीं “चिरंपिसे मुंड रूई भविता, अथिरखए तव नियमेहिं भठे, चिरंपि अप्याण किले
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