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कहते हैं, यथा गोत्तम ऋषि कुल वाला बोधे | गाथा १७ वी १८ वी “जएपसत्तस्सधण्णस्स
नासो, मंसं पसतस्सदयापनासो। बेसापसतस्स । कुलम्सनासो, मद्ये पसतस्सजसस्सनासो ॥१॥ हिंसापसतस्ससुधम्मसनासो, चोशिपसतस्सशरीरनासो । तहापरत्थीसुपतस्सयस्स, सबस्स नासो अहम्मागईय ॥२॥ अस्याथः सुगमः | सो ये १५ पन्द्रह कर्मादान और ७ कुविष्ण
को श्रावक जन, तत्वज्ञ अर्थात् बुद्धिमान् सत्संगी पुरुप अवश्य मेव अर्थात् जरूरी ही त्यागे क्योंकि भगवती सूत्र में लिखा है कि चार लक्षण से जीव नर्क गति में जाय ।। महारम्भी अर्थात् १५ कर्मादान के आचरने वाला ।। महा परिग्रही अर्थात् अत्यंत मुर्ती जैसे आना रुपया व्याज के लालच से चण्डाल