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तीसरा अध्याय ]
अन्तर्जगत् ।
कर्ताका प्रकृति-परतन्त्रता-वाद यद्यपि एक ओर असत्कर्मके लिए दायित्वबोधमें कुछ कमी कर सकता है, किन्तु दूसरी ओर वह सत्कर्मके लिए आत्म गौरवको कम करके अनेक अनिष्टके आकर अहंकारको विनष्ट करता है। अतएव उससे मनुष्यका धर्ममार्ग संकीर्ण नहीं होता, प्रशस्त और विस्तृत ही होता है।