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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
भोग निर्भर नहीं है। हाँ, कर्ताका दोष-गुण और समाजका दिया हुआ दण्ड
और पुरस्कार अवश्य निर्भर है। बुरे कर्मको बुरा ही कहना होगा, और बुरे कर्मके लिए बुरा फल ही भोगना होगा। किन्तु कर्ताकी स्वतन्त्रता न रहनेसे उसे दोषी या दण्डनीय नहीं कहा जा सकता। और, वह स्वतन्त्रता अगर किसी साक्षात् सम्बन्धवाले कारणसे नष्ट न होकर दूरवर्ती कार्य-कारण-प्रवाहमें नष्ट हुई हो, तो यद्यपि समाजको नियमबद्ध करनेवाले लोग समाजरक्षाके लिए, कर्ताको उसके कार्यका जिम्मेदार बनावेंगे, किन्तु विश्वनियन्ता उसे जिम्मेदार नहीं बनावेंगे। मगर विश्वराज्यके अलंध्य नियमके अनुसार कर्ताको कर्मफल भोग करना होगा। वह कर्मफल किन्तु ऐसे कौशलसे अवधारित है कि वह क्रमशः मनुष्यकी चित्तशुद्धिका कारण होकर उसे सुपथगामी बनावेगा
और उसका परिणाम, चाहे निकट हो और चाहे दूर हो, चाहे जल्दी हो और चाहे देरमें हो, शुभके सिवा अशुभ नहीं होगा। इस उत्तरके ऊपर फिर यह आपत्ति हो सकती है कि अगर कर्ताकी स्वतन्त्रता नहीं रही, और भले-बुरे सभी कामोंका परिणाम शुभ हुआ, तो लोग अधर्मके आचरणसे निवृत्त न होंगे, और कर्म-फल-भोग भी ईश्वरकी न्यायपरताके साथ संगत न होगा। कर्ताकी स्वतंत्रता स्वीकार न करोगे तो धर्मकी जड़ उखड़ जायगो, और ईश्वरको न्यायी नहीं कहा जा सकेगा। इस बातका उत्तर यह है कि कर्मफलभोगका भय ही अधर्माचरणको रोकनके लिए यथेष्ट है। कारण, अधर्मका शीघ्र मिलनेवाला फल अशुभ है, और परिणाम सभीका शुभ होने पर भी,दुष्कर्म करनेवालेके लिए वह शुभ परिणाम सुदूरवर्ती है । और, अगर कहो कि स्वतन्त्रताविही न काका कर्मफल भोगना ईश्वरकी न्यायपरायणताके विरुद्ध है, तो पक्षान्तरमें—स्वतन्त्रतायुक्त मनुष्यका कर्मफलभोग ईश्वरके दया-गुणके विरुद्ध है। कारण, सष्टिके पहले वह तो जानते थे कि कौन क्या करेगा, तो फिर उन्होंने दुष्कर्म करनेवाले और उसके कारण दुःखभोग करनेवाले काकी सृष्टि क्यों की ? असलमें बात यह है कि हमारा सीमाबद्ध ज्ञान ईश्वरके असीम गुणोंका विचार करनेमें सर्वथा असमर्थ है। देहयुक्त अपूर्ण आत्मा कर्ममें स्वतंत्र नहीं है। अवश्य ही यह स्वीकार करना होगा कि वह प्रकृतिपरतन्त्र है। कार्य-कारणका नियम माना जाय तो युक्ति यह बात कहती है, और आत्मासे पूछने पर आत्मा भी यही उत्तर देता है।