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ज्ञान और कर्म।
[ प्रथम भाग
अन्तके दृष्टान्तमें यह स्पष्ट देखा जाता है कि अनुमानकी प्रक्रिया ऊपर कहे गये नियमके अनुसार हुई है।
सामान्य-अनुमान और विशेष-अनुमान, इन दो तरहके कार्योंके द्वारा हमारे ज्ञानकी परिधि इतनी फैल गई है कि उधर ध्यान देनेसे विस्मित होना पड़ता है। कई एक स्वतःसिद्ध सरल तत्त्वोंके ऊपर निर्भर करके गणित शास्त्रके असंख्य जटिल दुरूह तत्त्वोंका अनुमान किया गया है । और जड़विज्ञानके विश्वव्यापी तत्त्वोंका अनुमान प्रत्यक्षलब्ध बहुत थोडीसी विशेषताओंसे किया गया है। इन सब विषयोंको सोचनेसे जान पड़ता है, मनुष्यकी बुद्धि उसकी क्षुद्र नश्वर देहसे कभी उत्पन्न नहीं हो सकती; वह अवश्य ही असीम अनन्त परमात्माका अंश है।
इसके सिवा बुद्धिका और एक कार्य है-कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय । बुद्धिकी इस काम करनेकी शक्तिको कभी कभी विवेकशक्ति कहते हैं। यह काम प्रधानतः कर्मविभागका विषय है, और इसकी विशेष आलोचना 'कर्तव्यताके लक्षण' नामके अध्यायमें की जायगी । इस जगह पर यह कह देना ही यथेष्ट होगा कि जैसे वस्तुका बड़ा या छोटा होना , सफेद होना या काला होना , हम प्रत्यक्षके द्वारा ठीक कर सकते हैं , वैसे ही कार्यकी कर्तव्यता-अकर्तव्यता या न्याय-अन्याय भी हम बुद्धिके द्वार ठीक कर सकते हैं। साधारणतः छोटे-बड़े या काले-गोरेके अलगावकी तरह कर्तव्याकर्तव्य या न्याय-अन्यायके पार्थक्यका ज्ञान भी सहज ही पैदा होता है । किन्तु इस बातके ऊपर यह आपत्ति हो सकती है कि अगर कर्तव्याकर्तव्यका अलगाव इतने सहजमें जाना जासकता है , तो फिर इसी विषयको लेकर अक्सर इतना मतभेद क्यों होता है। इसका उत्तर यह है कि जैसे छोटे-बड़ेका पार्थक्य सहज ही ज्ञेय होने पर भी, अनेक विशेष विशेष स्थलोंपर, जैसे एक गोल चतुष्कोण वस्तुमें कौन बड़ी है और कौन छोटी है-यह कहना कठिन है , अथवा जैसे शुक्लकृष्णका भेद सहज ही ज्ञेय होने पर भी, अनेक विशेष विशेष स्थलों पर, जैसे कुछ मटमैले रंगकी दो वस्तुओं में किसे शुक्ल और किसे कृष्ण कहें—यह निश्वय करना कठिन हो जाता है, वैसे ही कर्तव्याकर्तव्यका पार्थक्य सहज ही ज्ञेय होने पर भी, विशेष विशेष स्थलों पर क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, यह ठीक करना सहज नहीं होता; बहुत सोच विचार