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बात निःसंकोच होकर कही जा सकती है कि लेखकने जो कुछ भी लिखा है अपनी सदसद्विवेक बुद्धिको निरन्तर जागृत रखकर और किसी प्रकार के पक्ष. पातको आश्रय दिये बिना लिखा है । अपने प्रतिपक्षी विचारोंके प्रति भी लेखकके हृदयकी सहानुभूति सर्वत्र दिखलाई देती है-उन पर किसी प्रकारका क्षोभयुक्त आक्रमण कहीं भी नहीं किया गया है । इस विषयमें लेखकने अपनी वीतरागताको बहुत ही सावधानीसे सुरक्षित रक्खा है। हमारी समझमें लेखकके इस गुणके कारण यह ग्रन्थ प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य और पाश्चात्य, सभी विचारोंके अनुयायी पाठकोंमें श्रद्धापूर्वक पढ़ा जायगा और उनके ज्ञानको बढ़ानेमें बहुत बड़ी सहायता पहुँचावेगा।
बंगलाभाषाके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में इसकी गणना है । वि० सं० १९६६ में यह पहले पहल प्रकाशित हुआ था। सुना है, उसके बाद इसकी और भी कई आवृत्तियाँ निकल चुकी हैं । यद्यपि इस प्रकारके ग्रन्थोंके पढ़नेवाले पाठक सभी भाषाओंमें कम मिलते हैं, फिर भी हमें आशा है कि हिन्दीमें इस ग्रन्थका कम आदर न होगा और राष्ट्रीय भाषा बननेका दावा करनेवाली हिन्दी इसके एक ही संस्करणसे सन्तुष्ट न हो जायगी।' __ लगभग दो वर्ष पहले झालरापाटनके सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि और लेखक पं० गिरिधर शर्मा 'नवरत्न' ने हमें इस ग्रन्थके अनुवाद करानेकी प्रेरणा की थी और उसीका यह फल है कि आज हम इसे हिन्दीमें प्रकाशित कर रहे हैं । इसके लिए हम शर्माजीके प्रति कृतज्ञता प्रकाशित किये बिना नहीं रह सकते।
ग्रन्थकर्ताका परिचय ।। इस ग्रन्थके लेखक स्वर्गीय सर गुरुदास वन्द्योपाध्याय बंगालके उन नररत्नोमेंसे एक थे जिनके कारण केवल बंगालका ही नहीं. सारे भारतका मस्तक ऊँचा हुआ है। बंगालके प्रायः सभी शिक्षित और अशिक्षित उन्हें श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते थे । इस विषयमें बंगालके महान् पुरुषोंमें वे बहुत ही सौभाग्यशाली थे। यद्यपि उनका ज्ञान भी महान् था-उनकी जोड़के विद्वान् बहुत ही कम हुए हैं-तथापि उनकी महत्ता और पूजनीयता विशेषतः उनकी सच्चरित्रताके कारण थी। वे अपना समस्त आचरण अपनी अन्तरात्माके अनु