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ज्ञान और कर्म ।
[ प्रथम भाग
इन तीनों गुणोंका कुछ आभास आर्यशास्त्र के बीच छान्दोग्य उपनिषद् में (१) और श्वेताश्वतर उपनिषद् में ( २ ) पाया जाता है । उक्त दोनों उपनिषदों में लोहित शुक्ल कृष्ण कहकर ( ३ ) जिन तीन रूपोंका उल्लेख है वे ही सत्व, रजः, तमः ये तीनों गुण हैं । सोचकर देखनेसे जान पड़ता है कि अनिके जलने या सूर्यके निकलनेकी प्रथम अवस्थाका वर्ण लोहित या लाल होता है, पीछे पूरी तौरसे आग जलने या सूर्य निकलनेपर शुक्ल वर्ण होता है । अन्तको आग बुझने या सूर्य अस्त होनेपर कृष्णवर्ण होता है ।
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ज्ञेय या पदार्थके प्रकार निर्णयके लिए सभी देशोंके दार्शनिक पण्डितों ने प्रयास किया है । प्राचीन न्यायमें महर्षि गौतमने सोलह पदार्थोंका निर्देश किया है, किन्तु वह ज्ञेय पदार्थका प्रकारभेद नहीं है - वे न्यायदर्शनके सोलह विषय मात्र हैं।
महर्षि कणादने वैशेषिक दर्शनमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, और समवाय, पदार्थके ये छः प्रकारभेद कहे हैं । नव्यन्यायके मतमें पदार्थके उक्त छः प्रकारभेद अभावको मिलाकर सात कहे हैं ( ४ ) ।
ग्रीस देशके दार्शनिक अरिस्टॉटल ( अरस्तू ) के मतमें पदार्थ दस प्रकारके हैं, और उन प्रकारोंको उन्होंने 'काटिगरी' नाम से लिखा है ( १ ) । उन दस प्रकारोंके बीच देश और कालको छोड़कर बाकी आठका समावेश न्यायके सात प्रकारों में हो जाता है ।
जर्मन दार्शनिक कान्टके मत में अरिस्टाटलका प्रकारभेद युक्तिसिद्ध नहीं है । उनके मतमें बहिर्जगत्के ज्ञेय पदार्थोंका मूल प्रकारभेद, ज्ञाताके अन्तर्जगत् में जो स्वतः सिद्ध मूल प्रकारभेदके नियम हैं, उन्हींका अनुगामी होना आवश्यक है | और तदनुसार वे प्रकार चार प्रकारके हैं । जैसे—१ परिमाण ( एक, अनेक, समग्र), २ गुण ( सत्ता, असत्ता, अपूर्ण सत्ता ), ३ सम्बन्ध समवाय, कार्य-कारण, सापेक्षता ), ४ भाव ( संभव, असंभव, अस्ति, नास्ति, निर्विकल्प, सविकल्प ) । ६ )
(१) ६ अ०, ४ खंड देखो । (२) ४ अ०, १ ख०, देखो । (३) "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां । "
(४) द्रव्यं गुणकर्म सामान्यं सविशेषकम् । समवायस्तथाभावः पदार्थाः सप्त कीर्तिताः ॥ (9) Aristotle's Organon, Categories, Ch. IV देखो ।
(६) Critique of Pure Reason, Max Muller's translation Vol. II. P. 71. देखो ।