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छठा अध्याय ]
धर्मनीतिसिद्ध कर्म ।
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अतएव आहारको भी धर्मकार्य समझकर ईश्वरको स्मरणकर पवित्र भावसे उसमें प्रवृत्त होना कर्तव्य है। वैसे ही यथासंभव ज्ञानका और धर्मका उपान भी धर्मकार्य है। क्योंकि वह अपनी और दूसरेकी वैषयिक उन्नतिका, और प्रकारान्तरसे क्रमशः आध्यात्मिक उन्नतिका, उपाय है। यही समझकर उसमें प्रवृत्त होना हरएकका कर्तव्य है। ऐसा करनेसे ही वह कार्य पवित्र नावसे संपन्न होगा। अतएव साधारणतः हम सभीको अपने सब कर्तव्य कर्म ईश्वरके उद्देशसे करने चाहिए।
ईश्वरके प्रति विशेष कर्तव्य । किन्तु हमारे कई एक विशेष कार्य हैं, जो केवल ईश्वरके प्रति कर्तव्य हैं। इनमेंसे ईश्वरकी भक्ति करना सबसे पहला कर्तव्य है।
ईश्वरभक्ति। इस जगह पर प्रश्न उठ सकता है कि हम ईश्वरकी भक्ति क्यों करते हैं ? ' उससे प्रसन्न होंगे, और प्रसन्न होकर हमारा भला करेंगे, इस लिए ? या नकी सृष्टिके नियमके अनुसार हमारे मनमें उनके प्रति भक्तिका उदय होता ', और वह भक्ति सृष्टि के नियमके अनुसार हमारी भलाई करती है, इस हए ? जो लोग ईश्वरको व्यक्ति-भावसे देखते हैं, और कहते हैं कि ईश्वरको पक्ति-भावसे न मानकर जगत्की शक्तिसमष्टिको ईश्वर कहनेसे वह ईश्वरद निरीश्वरवादके सिवा और कुछ नहीं है, उनका मत यह है कि हम जैसे ई हमारी भक्ति करता है तो उसके ऊपर सन्तुष्ट होते हैं और उसका उपार करनेके लिए उद्यत होते हैं, वैसे ही ईश्वर भी अपनी भक्ति करनेवाले क्तके ऊपर प्रसन्न होते हैं, और उसका भला करते हैं। और जो लोग ईश्वको ब्रह्मरूप मानते हैं, और जगत्को ईश्वरसे अलग नहीं जानते, अर्थात् जो ग पूर्णाद्वैतवादी हैं और ईश्वरमें व्यक्ति-भाव आरोपित करनेको असंगत मझते हैं, उनका मत यह है कि ईश्वरकी भक्ति करना जीवका स्वभावद्ध धर्म है, और उस भक्तिके करनेसे भक्तका मंगल होना ईश्वरकी सष्टिनियम है।
लोग सहज ही जगत्को अपने समान देखते या मानते हैं-'आत्मवन्मपते जगत् '-और ईश्वर में भी अपनी प्रकृति तथा दोषगुणका आरोपण रते हैं । किन्तु तनिक सोचकर देखनेसे ही मालूम हो जाता है कि ईश्वरके
ज्ञा०-२३