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ज्ञान और कर्म ।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
[ द्वितीय भाग
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( गीता ९।२७ )
अर्थात् हे अर्जुन, जो तुम करते हो, जो खाते हो, जो होम या दान करते हो, जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पण करदो ।
इसी अर्थके अनुसार जातकर्मसे लेकर अन्त्येष्टि कर्म तक हिन्दूके जीवनके सभी कर्म धर्म कार्य कहे और माने जाते हैं, तथा धर्मकार्य समझ कर ही लोग उनका अनुष्ठान करते हैं ।
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देहरक्षा, स्त्रीका पाणिग्रहण, स्त्री-पुत्र आदिका पालन, सामाजिक कर्म-समूह आदि सभी नित्य-नैमत्तिक कामोंको इसी तरह धर्मकार्य समझकर ईश्वरकी प्रसन्नताके लिए कर सकनेसे ही उनके सुचारू रूप से सम्पन्न होनेकी और उनमें किसी तरह पापकी छाया न पड़नेकी संभावना है। जप-तप पूजा पाठ ही केवल ईश्वरके प्रतिकर्तव्य कर्म हैं, ये ही केवल धर्मकार्य हैं, और हमारे अन्य कर्तव्य कर्म केवल मनुष्य के प्रति कर्तव्य हैं, वे केवल लौकिक या वैषयिक कार्य हैं, धर्म या ईश्वरके साथ उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- ऐसा समझना भ्रम है । जो लोग ईश्वर और परकाल मानते हैं, उन्हें क्या पारिवारिक, क्या सामाजिक, और क्या राजनीतिक, सभी कार्य ईश्वरकी प्रीतिके लिए धर्मकार्य समझकर सम्पन्न करने चाहिए। कारण, सभी कार्योंका आध्यात्मिक फलाफल है, सभी कार्योंका फलाफल इस लोक में और परलोकमें भोगना होता है । एक साधारण दृष्टान्तके द्वारा यह बात और भी स्पष्ट हो जायगी । भोजन करना तो एक अति सामान्य कार्य है । किन्तु वही आहार अगर परिमित और सात्विकभावसे किया जाता है, तो उससे देहकी सुस्थता, मनकी शान्ति, सत्कर्म में प्रवृत्ति होती और असत्कर्मसे निवृत्ति होती है, और उसके फलसे इस लोकमें यथार्थ सुख और परलोकके लिए चित्तशुद्धि प्राप्त होती है । किन्तु आहार अगर अपरिमित और राजसिक भावसे किया जाता है, तो उससे देहकी असुस्थता, मनकी उग्रता, सत्कर्मसे चिढ़ और असत्कर्ममें प्रवृत्ति होती है, और उसके फलसे इसलोक में दुःख और परलोकके लिए चित्तविकार इत्यादि अशुभोंका प्राप्त होना निश्चित है ।