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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म ।
(३) रोगीको या उसके आत्मीय-स्वजनोंको यह बता देना चिकित्सकका कहाँतक कर्तव्य है कि रोगीकी हालत कैसी है, और उसके आरोग्यलाभकी संभावना कैसी या कितनी है ?
(४) रोगीको देखनेके लिए अगर बुलावा आवे तो उसका खयाल करनेके लिए चिकित्सक कहाँ तक बाध्य है। । प्रथम प्रश्नके सम्बन्ध तो जो चिकित्साशास्त्र में अनभिज्ञ है उसका कुछ कहना धृष्टतामात्र है। किन्तु जो लोग चिकित्साशास्त्रका कुछ भी ज्ञान नहीं रखते, उन्हींके मन में यह प्रश्न आगे उठता है, और विशेष उद्वेगका कारण होता है। जो लोग चिकित्साशास्त्रका ज्ञान रखते हैं, वे किसी नई दवाका प्रयोग करनेमें जैसे साहसी हो सकते हैं, वैसे वे नहीं हो सकते जो चिकिसाशास्त्रका ज्ञान नहीं रखते। पिछली तरहके लोग नई दवाके प्रयोगके अवसर पर दुश्चिन्तामें पड़ जाते हैं । प्लेग, डिपूथिरिया, सूतिकाज्वर आदि रोगोंमें उन उन रोगोंका विष रोगीके शरीरमें (टीकेके द्वारा) प्रविष्ट कराकर रोगको दूर करनेकी चिकित्सा इस देशमें जब पहले पहल चलाई गई थी, तब अनेक लोग उससे डरे थे; और, यह बात नहीं कहीं जा सकती कि वह भय अकारण था, या इस समय संपूर्ण रूपसे चला गया है । साधारणतः औषधके प्रयोगके सम्बन्धमें चिकित्सकके ऊपर रोगीको और उसके आत्मीय स्वजनोंको भरोसा करना चाहिए। किन्तु जिस जगह चिकित्साके नयेपन या उत्कटभावके कारण वे लोग वैसा भरोसा नहीं कर सकते, वहाँ चिकित्सकको वह नये ढंगकी चिकित्सा रोक ही देनी चाहिए।
दूसरे प्रश्नके उत्तरमें अवश्य ही यह कहना होगा कि चिकित्सा ऐसी न होनी चाहिए कि वह रोगीके 'वित्त-बाहर' हो, या प्रवृत्तिके विरुद्ध हो। जहाँ रोग तीन सप्ताहके पहले दूर नही हो सकता, वहाँ अगर पहलेही सप्ताहमें रोगीकी सारी पूँजी खर्च हो जाय, तो फिर शेष दो सप्ताहोंकी चिकित्साका खर्च कहाँसे आवेगा? ऐसी जगह रोगीकी अवस्था दृष्टि रखकर, उसके लिए यथासंभव कम दामकी दवाका प्रबन्ध करना, और एक दिन देख कर दो-तीन व्यवस्था बतला देना, चिकित्सकका कर्तव्य है।
जहाँ प्राण निकल जानेपर भी रोगी मांस नहीं खायगा ( जैसे किसी ब्राह्मणके घरकी विधवा, वैष्णव या जैनी), वहाँ उसके लिए मांसके रसकी व्यवस्था करना कदापि उचित नहीं है।