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शान और कर्म।
[द्वितीय भाग
एक बार भ्रम या भूल हो जाय तो बादको उसके सुधारनेका उपाय और समय प्रायः नहीं रह जाता । वकील-बैरिस्टर या विचारकसे अगर भ्रमभूल होजाय तो पुनर्विचारके द्वारा उसका संशोधन हो सकता है, मगर चिकित्सकके भ्रम-भूलको सुधारनेके लिए पुनर्विचारकी जगह ही नहीं है। __उसके उपरान्त कई एक कारणोंसें चिकित्सकका काम अति कठिन हो उठता है। ___ एक तो रोगियोंकी प्रकृति इतने प्रकारकी जुदी जुदी होती है. और एक ही रोग इतने विभिन्न प्रकारके रूप धारण करता है कि चिकित्सकने पुस्तकों में पढ़कर जो विद्या प्राप्त की है केवल उसीके ऊपर भरोसा करनेसे किसी तरह काम नहीं चलता। उसे प्रायःसभी जगह अपनी बुद्धि लड़ानी पड़ती है, अनुभवसे काम लेना पड़ता है।।
दूसरे रोगीका शरीर शिथिल कातर होता है, मन भी अनेक जगह अस्थिर होता है, फिर उसके आत्मीय स्वजन भी चिन्तासे व्याकुल और घबराये हुए से होते हैं। अतएव जिनके निकट रोगका ब्यौरा मालम हो सकता है वे चिकित्सककी वह सहायता करनेमें असमर्थ होते हैं। लेकिन व्याकुलताके मारे चिकित्सकको, प्रश्नपर प्रश्न करके, खिझाये बिना उनसे रहा भी नहीं जाता।
तीसरे अनेक समय रोगीकी आर्थिक अवस्था ऐसी होती है कि वह उपयुक्त चिकित्साका खर्च चलानेमें अक्षम होता है। ___ चौथे रोगीकी जरूरत जो है वह वक्त-बेवक्त नहीं देखती । और, अनेक जगह ऐसे असमय या कुसमयमें चिकित्सकको बुलानेकी आवश्यकता होती है कि चिकित्सकके लिए अपने स्वास्थ्य और सुभीतेकी ओर दृष्टि रखकर चलना दुर्घट हो उठता है। ___ इन्हीं सब कारणोंसे चिकित्सककी कर्तव्यताके सम्बन्धमें अनेक प्रश्न उठ सकते हैं। जैसे
(१) चिकित्सकका अपनी न जानी हुई और न जाँची हुई दवा देना कहाँ तक न्याय-संगत है ?
(२) चिकित्साको रोगीकी आर्थिक अवस्था और प्रवृतिके उपयोगी बनाना कहाँतक चिकित्सकका कर्तव्य है ?