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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म।
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तीसरी प्रणाली । मान लो कि ७ आदमी प्रार्थी हैं। हरएक निर्वाचक अपने मतके अनुसार, प्रार्थियोंके गुणोंके तारतम्यके क्रमसे उनके नाम लिख ले, और उनके नामोंके पास-पास क्रमपूर्वक ७ से लेकर १ तक अंक लिखे । इस तरह सब निर्वाचकोंका मत ले चुकनेपर, हरएक प्रार्थीके नामके पास वाले सब अंक जोड़ लिये जायें। उसमें जिसे सबसे अधिक संख्या मिलेगी, वही निर्वाचित होगा (.)।
यह प्रणाली कल्पनामें एक प्रकारसे सर्वांगसुन्दर है, किन्तु कार्यतः इसे चलाना कठिन है। कारण, प्रार्थियोंकी संख्या कुछ अधिक होने पर उन्हें गुणानुसार उत्तरोत्तर स्थापित करना सहज नहीं है।
एकसे अधिक पदोंके लिए एक साथ निर्वाचन करना हो, तो भी तीसरी प्रणाली काममें लाई जासकती है, और जो दो तीन इत्यादि प्रार्थी सबसे अधिक संख्या पावेंगे, वे ही निर्वाचित होंगे । किन्तु उस जगह ऊपर कहे गये गुणानुसार क्रमसे नामोंको रखना अति कठिन है । यह आपत्ति प्रबल है,
और इसी कारण ऐसे स्थलमें ऊपर लिखी हुई पहली प्रणाली ही काममें लाई जाती है।
निर्वाचनके सम्बन्धमें ऊपर जो कहा गया है, वह प्रायः सभी प्रकारकी समितियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले चुनावके बारेमें कहा जासकता है।
(६) अर्थानुशीलनसमाज और उसकी नीति । धनके अनुशीलन और धनके उपार्जनकी सुविधाक लिए लोग अनेक प्रकारके नियमोंसे समाजबद्ध होते हैं। उनमेंसे कुछ राजप्रतिष्ठितनियमके अधीन हैं-जैसे, वकील बैरिस्टरोंका समाज । अन्य अधिकांश समाज समाजबद्ध व्यक्तियोंकी इच्छासे स्थापित नियमोंके अधीन हैं।
अर्थानुशीलन समितिकी कार्यप्रणाली और हिसाब वगैरह बहुत ही जटिल मामले हैं। उन्हें अनेक लोग अच्छीतरह समझ नहीं सकते। फिर अर्थलालसा भी अतिप्रबल प्रवृत्ति है, और वह सहजहीमें लोगोंको कुपथगामी कर देती है । अतएव उन सब समितियों के नेताओंको देखना चाहिए कि उनकी कार्यप्रणाली और हिसाब रखनेके नियम यथासाध्य जहाँ तक सरल और सर्व
(१ इस सम्बन्धमें Tod hunter's History of the Theory of Probablity, pp. 374, 433 and 547 देखो।