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ज्ञान और कर्म ।
[द्वितीय भाग
होनेपर दूसरा आदमी उस पदमें नियुक्त हो सकता है, और सभाके कार्यको चला सकता है।
समितिसम्बन्धी पदके लिए निर्वाचनकी विधि।। ज्ञानानुशीलनसमितिसे सम्बन्ध रखनेवाले किसी पद पर व्यक्तिके चुनावके सम्बन्धमें कई एक नीतियाँ हैं । उनका पालन सभीको करना चाहिए।
(१) निर्वाचन-प्रार्थीको सबसे पहले अपने मनमें अपनी योग्यता ठीक कर लेनी चाहिए। साथ ही यह भी ठीक कर लेना चाहिए कि अपनी उस योग्यताके प्रमाणस्वरूप वह समितिके लिए क्या विशेष कार्य कर सकता है। प्रार्थित पदके संमानकी अपेक्षा जिम्मेदारी बड़ी है, और उस जिम्मेदारीका बोझ लाद न सकनेसे सम्मानकी जगह लांछना ही होगी, यह भी उसे याद रखना चाहिए। __ अनेक जगह लोग पहले तो अपने चुने जानेके लिए व्यग्र देखे जाते हैं.. किन्तु चुनाव हो जाने पर काम करनेके लिए कुछ भी व्यग्रता नहीं दिखाते, यह अत्यन्त अन्याय है।
(२) जहाँ पर निर्वाचित होनेके लिए उद्योग करना निषिद्ध नहीं है. वहाँ यथासंभव उद्योग करनेमें, अर्थात् विनयपूर्वक अपनी योग्यताका परिचय देनेमें, दोष नहीं है। किन्तु उस उद्योगके उपलक्षसे कोई शिष्टाचारके विरुद्ध कार्य, खासकर किसी प्रतियोगीकी निन्दा करना, अत्यन्त अनुचित है। __ कोई कोई सोच सकते हैं कि निर्वाचित होनेके लिए किसी प्रार्थीका अपनेको केवल योग्य दिखाना ही यथेष्ट नहीं है, बल्कि उसे यह दिखाना चाहिए कि वह सबसे बढ़कर योग्य है, और इसके लिए जैसे उसे यह दिखाना आवश्यक है कि मैं योग्य हूँ, वैसे ही यह भी दिखाना आवश्यक है कि मेरे अन्य प्रतियोगी अयोग्य हैं। किन्तु यह अच्छी युक्ति नहीं है। अपने गुणोंका आप बखान करना ही विधिविरुद्ध है, कारण, उससे आत्माभिमान बढ़ता है। उस पर दूसरेके दोषोंका कीर्तन तो केवल शिष्टाचारके विरुद्ध ही नहीं वास्तवमें अपने लिए अनिष्टकर भी है। कारण, उसके द्वारा ईर्षा-द्वेष आदि सब कुप्रवृत्तियोंको प्रश्रय मिलता है । उस तरहकी राह पकड़नमें लोगोंकी पदवृद्धि संभावना रह सकती है, लेकिन आत्माकी अवनति उसका निश्चित फल है।