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ज्ञान और कर्म।
[ द्वितीय भाग
वाद भी संपूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता । यह सच है कि सभी मनुष्य समान नहीं हैं । यह भी सत्य है कि जीवनसंग्राममें योग्यतमहीकी जय होती है। किन्तु योग्यतम किसे कहते हैं ? जीवनसंग्राम ही क्या चीज है
और उसका फल ही क्या है ? जब इस पृथ्वीके जीवविभागमें आध्यात्मिक भावका आविर्भाव नहीं हुआ था, तबके जीवोंमें जो शारीरिक बलमें प्रबल और ' आत्मरक्षाके लिए आवश्यकतानुसार अपनेको बचानेमें तत्पर ' होता था वही योग्य कहा जाता था। शत्रुविनाश ही उस समयका जीवनसंग्राम था और, उसका फल योग्यतमकी वृद्धि तथा अयोग्यतमका घटना और मिट जाना था। किन्तु जिस समय पृथ्वी पर मनुष्य जातिके साथ साथ आध्यात्मिक भावका आविर्भाव हुआ, उस समयसे योग्यताका लक्षण क्रमशः परिवर्तित होता आ रहा है (१)। शत्रुको नष्ट करनेके पाशव बलकी अपेक्षा, शत्रुकी रक्षा करने, उसका संशोधन करने और उसे मित्र बना लेनेके लिए दया, उपकारकी इच्छा, प्रेम आदि उच्चतर आध्यात्मिक शक्तियाँ ही अब योग्यताका यथार्थ लक्षण समझी जाती हैं, अर्थात् आत्माकी उदारता बढ़ती जाती है और अपने-परायेका भेद कम होता जा रहा है । जीवनसंग्राममें भी, अयोग्यको केवल बलके द्वारा विनष्ट करनेका नृशंसभाव न रखकर अयोग्यको अपने गुणोंसे परास्त करनेका शान्तभाव पैदा होता जा रहा है, अर्थात् पहले नृशंसभावके पिछले शान्तभावके रूपमें बदल जानेके ढंग नजर आ रहे हैं। आशा की जाती है कि इस तरहके जीवन-संग्रामका फल, योग्यतमकी जयके साथ उसकी अपेक्षा कम योग्यका विनाश न होकर, क्रमशः अपेक्षाकृत अयोग्यकी रक्षा और उसका अधिकतर योग्य बनना ही होगा। यह सच है कि इस समय भी वह सुदिन बहुत दूर है, इस समय भी उस भावके बहुतसे व्यतिक्रम उपस्थित हैं। यह भी सच है कि सभ्यजगत्के बीच बीच बीचमें स्वार्थपरताकी ऐसी प्रबल लहरें उठती हैं कि वे उक्त मंगलकी जो थोडीसी संभावना है उसको बहा ले जा सकती हैं। किन्तु सब लोग जगत्के मंगलके लिए भलेही स्वार्थपरताको न छोड़ें और परार्थपरताका व्रत न ग्रहण करें, उन्हें अपने अपने मंगलके लिए ही शीघ्र वही राह पकड़नी पड़ेगी।
(१) इस सम्बन्धमें आनुषंगिक रूपसे Marshall's Principles of Ficonomics pages 302-3 देखना चाहिए।