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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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बनाकर संगठित करना पड़ेगा। किन्तु वे विलासभवन बनानेके लिए उल्लिखित देवीमन्दिरको न तोड़ें, यही उनसे मेरा विनीत निवेदन है।। _ मैंने ऊपर थोड़ी अवस्थाके विवाहके अनुकूल कई बातें कही हैं, और यहाँ पर भी चिरवैधव्यपालन प्रथाके अनुकूल अनेक बातें कही हैं, इससे कोई महाशय मुझे समाजसंस्कारका विरोधी न समझ लें। मैं यथार्थ संस्कारका विरोधी नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि समय समय पर समाजमें परिवर्तन हुआ करते हैं; समाज कभी जड़भावसे स्थिर नहीं रह सकता। मैं विश्वास करता हूँ कि यह जगत् निरन्तर गतिशील है, और वह गति, बीच बीचमें व्यतिक्रम होने पर भी, अन्तको उन्नतिमुखी हुआ करती है। मेरी अत्यन्त इच्छा है कि समाजसंस्कारका लक्ष्य सच्ची उन्नति ( अर्थात् आध्यात्मिक उन्नति ) की ओर अविचलित रहे। और इसीसे, कोई कुछ भी कहे, मैंने समाजसंस्कारक सज्जनोंसे इतनी बातें कही हैं।
(२) पुत्र-कन्याके सम्बन्ध कर्तव्यता। पुत्र-कन्याके प्रति पहला कर्तव्य उन्हें इस तरह पालना-पोसना है कि वे सुस्थ और सबल शरीर बन सकें । इसमें कुछ खर्चकी जरूरत है; परन्तु यदि हम वृथा बड़े आदमियोंका चाल-चलन न पकड़ें तो अधिक खर्च नहीं पड़ सकता।
बच्चेके आहारके लिए माताका दूध अत्यन्त आवश्यक है। उसके बाद अच्छा विशुद्ध गजका दूध भी चाहिए। धीरे धीरे लड़की-लड़कोंके कुछ बड़े होने पर अन्न (रोटी-दाल-भात-पूरी आदि) दिया जा सकता है। मगर अब वह समय आ लगा है कि अच्छा घी दुर्लभ हो रहा है, इस लिए घीकी पकी चीजें अधिक न खिलाना ही उचित जान पड़ता है।
बच्चेके कपड़ोंको सदा साफ रखना एक बहुत जरूरी बात है। सफेद सूतके कपड़े ही अच्छे होते हैं। उन्हें धोना सहज है, और धोनेसे उनका रङ्ग नहीं बिगड़ता। रेशमी, ऊनी या लाल रंगके कपड़ोंका उतना प्रयोजन नहीं है।
बच्चेकी शय्यामें मल-मूत्र लगनेकी संभावना है, इस कारण वह ऐसी होनी चाहिए कि सदा धोई जा सके और बीच बीचमें एकदम छोड़ दी जा सके। उसमें गद्दी या तोशक न रहनी चाहिए। कारण, उन्हें हरघड़ी धो नहीं
ज्ञा०-१७