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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
अधिक है-यह कह कर गौरव-गर्व करनेका अधिकार नहीं रहेगा; स्वार्थपरताके त्याग और परार्थपरताके अभ्यासकी जगह उसके विपरीत शिक्षा प्राप्त होगी। यद्यपि पाश्चात्यनीतिवेत्ता बेन्थम साहब (१) की रायमें दोनों पक्षोंकी स्वेच्छासे विवाहबन्धन विच्छिन्न हो जाना उचित है, किन्तु उस मतकी अनुयायिनी प्रथा सभ्यसमाजमें कहीं भी प्रचलित नहीं हुई।
अनेक लोगोंका यह मत है कि केवल पति-पत्नीकी इच्छासे न हो, उपयुक्त कारणसे विवाहबन्धन विच्छिन्न हो सकना उचित है। अनेक सभ्यसमाजोंकी प्रचलित प्रथा इसी मतके अनुसार संस्थापित हुई है। किन्तु यह मत
और यह प्रथा उच्च आदर्शकी नहीं जान पड़ती । सच है कि पति-पत्नी दोनोंका परस्पर व्यवहार अगर बुरा हो, तो उन दोनोंका एकसाथ रहना अत्यन्त कष्टकर होता है। लेकिन जहाँ वे जानते हैं कि ऐसी अवस्थामें हम विवाह-बन्धनसे छुटकारा पा सकते हैं, वहाँ उस छुटकारा पानेकी इच्छाहीसे बहुत कुछ वैसे बुरे व्यवहारको उत्तेजना मिलने लगती है। मगर जहाँ उन्हें मालूम है कि वह बन्धन अविच्छेद्य है, वहाँ उनका वह ज्ञान ही उनके परस्पर कुव्यवहारको बहुत कुछ कम किये रहता है। हिन्दूसमाज ही मेरे इस कथनका प्रमाण है । मैं यह नहीं कहता कि हिन्दूसमाजमें विवाहबन्धनका विच्छेद न हो सकनके कारण स्त्री-पुरुष के बीच गुरुतर विवाद होता ही नहीं। किन्तु होनेपर भी वह इतने कम स्थलोंमें, और ऐसे ढंगसे, होता है कि उसके कारण समाजकी स्थितिमें कुछ विशेष विन्न नहीं होता, और अभी तक कोई यह नहीं सोचता कि विवाह-बन्धन-विच्छेदकी विधि बनानेकी जरूरत है।
जिस जगह एक पक्षके साथ दूसरे पक्षका व्यवहार अत्यन्त निन्दित और कलुपित है, उस जगह बहुत लोग ऐसा समझ सकते हैं कि जिस पक्षके साथ निन्दित व्यवहार किया जाता है उस पक्षका विवाहबन्धनसे छुटकारा पाना अत्यन्त प्रयोजनीय है। जो व्यक्ति खुद निर्दोष है, केवल दूसरके दोषसे कष्ट पाता है, उसके लिए अवश्य ही सब लोग दुःखित हो सकते हैं, और उसका दुःख दूर करनेके लिए चेष्टा कर सकते हैं किन्तु विवाहबन्धनसे छुट
(१) Bentham's Theory of Legislation, Principles of the Civil Code, Part lll Ch. V. Sec 11. देखो।