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ज्ञान और कर्म ।
[द्वितीय भाग
समझ पावें कि उन दोनोंकी प्रकृतिमें इतना वैषम्य है कि वे परस्पर एक दूसरेके लिए उपयोगी नहीं होसकते, तो उस भूलका संशोधन करनेके लिए विवाहबन्धनको तोड़नेके सिवा उनके लिए और कोई उपाय नहीं रह जाता। बाल्यविवाह में भी इसतरहकी भूल होनेकी यथेष्ट संभावना है। तो भी, पहले तो, यौवनविवाहमें जितनी है उतनी वाल्यविवाहमें नहीं है। कारण, यौवनविद्याइनें, युवक-युवती ही अपनी अपनी प्रवृत्तिकी प्रेरणासे कार्य करते हैं, और उस समय उस अवस्थामें प्रवृत्तिके भ्रममें पड़ जानेकी संभावना अत्यन्त अधिक है। किन्तु बाल्यविवाहमें, उद्धत प्रवृत्तिके द्वारा प्रेरित युवक और युवतीकी जगह संयत प्रवृत्तिवाले और सत्-विवेचनासे संचालित प्रौढ़ प्रौढ़ा जनक जननी ही उस निर्वाचनका भार अपने ऊपर लेते हैं, और उनसे भूल होनेकी संभावना अपेक्षाकृत अल्प ही है। फिर दूसरे, अल्प अवस्थामें प्रकृतिके कोमल और चरित्रके परिवर्तनशील होनेके कारण जैसे विवाहसम्बन्धमें बंधेहुए बालक-बालिका परस्परके लिए उपयोगी होकर अपनी प्रकृति और चरित्रको उसी तरहका बना ले सकते हैं, उससे यह पश्चात्ताप करनेका कारण प्रायः नहीं रह जाता कि उनके निर्वाचनमें भूल हई थी। इन बातोंके काल्पनिक न होनेका अर्थात् यथार्थ होनेका, उत्कृष्ट प्रमाण यह है कि जिन देशोंमें अधिक अवस्थामें ब्याह होनेकी चाल है उनमें जितने विवाह-विभ्राट होते हैं और अदालतमें विवाह-बन्धन तोड़नेके लिए जितनी दास्तें गुजरती हैं उनका शतांश भी इस बाल्यविवाह प्रथा के अनुगामी भारतमें नहीं होता-बल्कि यह भी कहें तो कह सकते हैं, कि वे बातें यहाँ होती ही नहीं हैं। अतएव यह अवश्य ही स्वीकार करना होगा कि बाल्य-विवाहके सम्बन्धमें प्रथम प्रतिकूल युक्तिके साथ साथ अनेक अनुकूल बातें भी हैं।
(२) बाल्यविवाहके विरुद्ध पक्षमें उल्लिखित दूसरी आपत्ति यह है कि बाल्यविवाहसे उपयुक्त सन्तान पैदा करनेमें बाधा पड़ती है । किन्तु यह आपत्ति अखण्डनीय नहीं है । यह बात कोई नहीं कहता कि ब्याह होते ही स्त्री-पुरुष दोनों पूर्ण सहवासके योग्य हो जाते हैं । पिता-माता अगर कर्तव्यनिष्ठ और दृड-प्रतिज्ञ हों, तो वे थोड़ी अवस्थामें ब्याहे गये पुत्र कन्याके स्वास्थ्य और सन्तान पैदा करनेके योग्य समय पर लक्ष्य रखकर