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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
विवाह-सम्बन्धसे होनेवाला अधिकार प्रायः सर्वत्र ही पुरुषको अधिक है, स्त्रीको उसकी अपेक्षा कम है। इसका एक कारण है। वह यह कि पुरुष पक्ष ही प्रबल और नियम बनानेवाला है। किन्तु जान पड़ता है, इस अधिकारकी विषमताके मूलमें और भी एक निगूढ कारण है, और वह बिल्कुल असंगत भी नहीं है। सन्तानकी माता कौन है, इस बारेमें कोई संशय नहीं रह सकता। किन्तु सन्तानका पिता कौन है, इस विषयमें, स्त्री-पुरुषका संसर्ग अनियमित रहनेपर संशय उपस्थित हो सकता है । जान पड़ता है, इसी कारण अन्यके साथ संसर्ग, और यथेष्ट घूमने-फिरनेके बारेमें पुरुषोंने खुद जितनी स्वाधीनता ली है उतनी स्वाधीनता वे स्त्रियोंको नहीं देना चाहते । इसके साथ यह कह देना अप्रासंगिक न होगा कि जहाँ एक स्त्रीके कई स्वामी रहनेकी रीति प्रचलित है वहाँ लोगोंका परस्पर सम्बन्ध मातृमूलक है, पितमूलक नहीं।
विवाहसम्बन्ध किस तरहका होना चाहिए । ऊपर संक्षेपमें कहा गया है कि विवाहसम्बन्ध अनेक देशोंमें अनेक प्रकारका है। उनके विस्तृत वर्णनका कोई प्रयोजन नहीं है। अब इसीकी अलोचना करनी है कि वह कैसा होना चाहिए । इस आलोचनामें विवाह सम्बन्धकी उत्पत्ति, स्थिति और निवृत्ति, ये तीन विषय देखना आवश्यक है।
सबसे पहले विवाहसम्बन्धकी उत्पत्ति है यह सम्बन्ध इच्छाधीन है, पिता-पुत्र या भाई-बहनके सम्बन्धकी तरह पूर्वनिरूपित नहीं है। 'किसकी इच्छाके अधीन है ? ' इस प्रश्नका उत्तर अवश्य ही यह होना चाहिए कि 'जो इस सम्बन्धमें आबद्ध होंगे उनकी'। और, वे दोनों या उनमेंसे एक आदमी अल्पवयस्क होनेके कारण अगर अपनी इच्छा पर भरोसा करनेके लायक न हो, तो उनके या उसके पिता माता अथवा अन्य अभिभावकोंकी इच्छाके ऊपर उनका या उसका विवाह-सम्बन्ध निर्भर होगा। किन्तु इस तरहका गुरुतर सम्बन्ध, जिसका फलाफल दो मनुष्योंके जीवनको सुखमय या दुःखपूर्ण बना सकता है, उन्हीं दोनों आदमियोंके सिवा अन्य किसीकी इच्छाके ऊपर निर्भर होने देना उचित है या नहीं ? यह प्रश्न इस जगह पर अवश्य उठ सकता है। इसके साथ ही यह प्रश्न भी उठेगा कि बाल्यविवाह उचित है या नहीं ? ये दोनों प्रश्न परस्पर संयुक्त