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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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समाजोंके समूहसे जाति गठित होती है। कई जातियोंको लेकर साम्राज्य स्थापित होता है। यही साधारण नियम है। पारिवारिक सम्बन्ध स्त्री-पुरुषके सम्बन्ध पर स्थापित है। विवाह-बन्धन इस पिछले सम्बन्धकी मूल-ग्रंथि है। पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्मकी आलोचना इस अध्यायका उद्देश्य है। वह आलोचना निम्न लिखित कई भागों में बाँटी जाती है।
इस अध्यायके आलोच्य विषय । (1) विवाह-बाल्यविवाह, बहुविवाह, विधवाविवाह, विवाहके सम्बन्धमें कर्तव्यता।
(२) पुत्र-कन्याके सम्बन्धमें कर्तव्यता। (३) माता-पिताके सम्बन्धमें कर्तव्यता । (४) जातिबन्धु आदि अन्यान्य स्वजनोंके सम्बन्धमें कर्तव्यता ।
विवाह । विवाहसंस्कारकी सष्टि और क्रमविकास किसतरह हुआ है, इस प्रत्न-तत्त्वकी खोज करना इस समयका उद्देश्य नहीं है । वर्तमान समयमें अनेक देशों और समाजोंमें विवाहकी प्रथा किस रूपमें प्रचलित है और वह कैसी होनी चाहिए, इसीकी आलोचना यहाँ पर करनी है।
विवाहसम्बन्धके अनेक रूप । विवाहसम्बन्धका प्रथम लक्षण है स्त्रीके ऊपर पुरुषका अधिकार, और पुरुषके ऊपर भी, उसके समान न सही, कुछ स्त्रीका अधिकार भी । इस सम्बन्धका स्थितिकाल कहीं दोनोंका जीवनभर है, कहीं एककी जिंदगी भर है, औरं कहीं एक निर्धारित समय तकके लिए है । इसका बन्धन कहीं एकदम न टूटनेवाला है, कहीं दोनों पक्षकी अपनी इच्छासे, जब चाहे तब, टूट सकता है, कहीं एक पक्ष ( पुरुष) की इच्छासे टूट सकता है-दूसरे पक्ष (स्त्री) की इच्छासे नहीं टूट सकता, कहीं विशेष कारण ( जैसे व्यभिचार ) होनेसे टूट सकता है। एक पुरुषके एक स्त्री, यह साधारण नियम है, किन्तु कहीं एक पुरुषके बहुत पत्नी रह सकती हैं, और शायद कहीं एक स्त्रीके कई पति भी रह सकते हैं।