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ज्ञान और कर्म ।
[ द्वितीय भाग
नहीं करूँगा, काम किया गया हो, तो वह कार्य आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीके साथ असत्याचरण है, और उसे तीसरे प्रश्नके अन्तर्गत कहना चाहिए। उसके लिए प्रतिज्ञा तोड़नेवालेको अपनी अपूर्णताके कारण अवश्य ही चित्त सन्तप्त रहना होगा ।
४ - परहितके लिए अनिष्टकारीके साथ असत्यका आचरण कहाँतक न्यायसंगत है ? – यह प्रश्न भी अत्यन्त सहज नहीं है । एक दृष्टान्तसे यह स्पष्ट हो जायगा । किसी भागे हुए आदमीके पीछे दौड़ रहा और शस्त्र हाथमें. लिये मार डालनेके लिए उद्यत आक्रमणकारी अगर एकान्त निर्जन स्थान - में किसी आदमीसे पूछे कि वह आदमी किस तरफ भाग कर गया है और अगर वह ठीक उत्तर न देगा तो उसे भी मार डालने की धमकी दे, तो जिससे उसने प्रश्न किया है उसे यह उचित है कि नहीं कि वह उससे झूठ बोलकर अपने और भागे हुए आदमीके प्राण बचाले ? इस प्रश्नका "हाँ, उचित है " यह उत्तर देनेमें शायद किसीको संकोच न होगा । कर्मक्षेत्रमें यद्यपि जान पड़ता है कि यह उत्तर सभी देंगे और उसके अनुसार कार्य भी करेंगे, तथापि विचारक्षेत्र में एक बार इस बातको सोचकर देखना चाहिए | जिससे पूछा जाय उस व्यक्तिका पहला कर्तव्य यह है कि पूछनेवालको हत या आहत ( घायल ) न करके निहत्था बना कर उस पापकार्य से निवृत्त करे। इस विषय में कोई मतभेद हो नहीं सकता । किन्तु यह कार्य करनेमें विशेष बल या कौशल बहुतों में नहीं है । आक्रमणकारीको जानसे मारकर या घायल करके निवृत्त करना अपेक्षाकृत सहज है, किन्तु उसमें कर्तव्यताका विरोध आता है— एक ओर भागे हुएकी प्राणरक्षा कर्तव्य है, दूसरी ओर यथासाध्य आक्रमणकारीको न मारना और न घायल करना भी कर्तव्य है । और वह चाहे जो हो, आक्रमणकारीको इस तरह निरस्त्र करना भी सबके लिए साध्य नहीं है । यह न कर सकने पर, उत्तर देंगे कि न बोलना ही उसका कर्तव्य है जिससे पूछा जाय । किन्तु उसमें भी विपत्ति है । कारण, उसमें अपने प्राण जाते हैं। उधर अपने प्राणोंकी रक्षा करना भी कर्तव्य है । सत्य उत्तर देनेसे अपने प्राण बचते हैं सही, किन्तु अन्यके प्राण जाते हैं । यह तो घोरतर कर्तव्यता- विरोधकी जगह है। झूठ उत्तर देनेसे दोनोंके प्राण बच सकते हैं, किन्तु सत्यकी रक्षा नहीं होती । इस तरह एक न एक ओर
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