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दूसरा अध्याय ]
कर्तव्यताका लक्षण |
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सकता । सत्य बोलना मानो आत्माको सुव्यक्त करना है । अपूर्णता के कारण हम सर्वदा सत्य नहीं बोल सकते, कमसे कम अपनी वह असमर्थता स्वीकार करना उचित है, उसे ढकनेकी चेष्टा करना विधिविरुद्ध है । और, जैसे सूर्य की किरणें यह विचार न करके कि कौन पवित्र है और कौन अपवित्र है, सभीको प्रकाशित करती हैं, अपवित्रको पवित्र करती हैं, वैसे ही सत्यकी ज्योति भी, क्या समाजके अन्तर्गत और क्या बहिष्कृत, क्या सदाचारी और क्या दुराचारी, सभी के लिए सेवन-योग्य है, और दुराचारी तथा तमोगुणसे जिनकी बुद्धि आच्छन्न हो रही है वे लोग उस सत्यकी विमल ज्योतिसे कभी कभी प्रकाशित भी हो सकते हैं-दिव्यदृष्टि भी पासकते हैं । तो भी यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि ऐसे अनेक अवसर हो सकते हैं। जिनमें उक्तरूप प्रतिज्ञापालन निन्दित हो पड़ता है । जैसे—उस प्रतिज्ञा पालनके द्वारा प्रतिज्ञाकारीका अगर सर्वस्व ही चला जाता हो, उसके आश्रितजनोंके भरण-पोषणका भी सहारा न रहता हो। ऐसी जगह पर, जान पड़ता है, दुर्बल मनुष्यको प्रतिज्ञा भंग करना ही पड़ेगा । किन्तु उसे अच्छा काम हुआ न समझकर कातर भावसे संतप्त चित्तसे यह जानना उचित है कि यह मैं अपनी अपूर्णताका फल भोग रहा हूँ। अगर मुझमें पूर्णता होती, तो असावधानतावश जिस विपत्ति में पड़ कर प्रतिज्ञा की थी, साव'धानतासे उस विपत्तिको बचा जाता, अथवा विपत्ति में पड़कर भी शत्रुको अनिष्ट करनेमें असमर्थ बनाकर छुटकारा पा सकता ।
इस सम्बन्ध में और एक बात है । ठग डाकूको न पकड़ा हूँगा, इस प्रतिज्ञाका पालन करनेसे समाजके प्रति कर्तव्यका लंघन किया गया या नहीं ? यह एक कर्तव्यताका विरोध-स्थल है और जान पड़ता है, ऐसी जगह समा
के प्रति कर्तव्य ही प्रबल गिना जायगा । तो भी इस जगह पर ठग - डाकूसे झूठ बोलना पर - हित के लिए है, और यह प्रश्न ऊपर लिखे जाचुके चौथे प्रश्नके अन्तर्गत है, ठीक यह बात नहीं कही जा सकती । प्रतिज्ञा करने के समय अगर परिणाम न सोचकर और उसका पालन करूंगा यह खयाल करके काम किया गया हो, और बादको सोच समझ कर समाजके हितके लिए - प्रतिज्ञा तोड़ी गई हो, तो अवश्य ही विवेच्य विषय चौथे प्रश्नके अन्तर्गत होगा । किन्तु प्रतिज्ञा करनेके समय यदि यह ठीक करके कि उसका पालन