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ज्ञान और कर्म।
[ द्वितीय भाग
___ एक सामान्य प्रवाद है कि 'कर्ताकी इच्छा ही कर्म है।' व्यंग्यके समय ही इसका प्रयोग होता है। किन्तु इस परिहाससूचक प्रवाद ( कहावत ) में भी कुछ सत्य है । काकी इच्छा ही कर्मका साक्षात्-सम्बन्धी और निकटवर्ती कारण है। किन्तु वह इच्छा स्वतन्त्र है, या अन्य कारणके अधीन है, इसका सिद्धान्त हुए विना यह नहीं कहा जासकता कि काके स्वतन्त्रता है, या नहीं। मेरी इच्छा स्वतन्त्र है कि नहीं, इस विषयका निर्णय करनेके लिए अपने अन्तःकरणमें ही आगे अनुसन्धान करना होता है, पहले अपने आत्मासे ही यह पूछना होता है । आत्माका अविवेचित उत्तर स्वतन्त्रताके अनुकूल होगा? आत्मा अनायास ही कहेगा कि मेरी इच्छा स्वतःप्रवृत्त है, और यद्यपि मैं जो करनेकी इच्छा करता हूँ वही सब स्थलोंमें कर नहीं सकता, किन्तु जो नहीं करनेकी इच्छा है वह करनेके लिए कोई भी मुझे वाध्य ( मजबूर ) नहीं कर सकता। किन्तु आत्माका यह साक्ष्यवाक्य स्वीकार करनेके पहले साक्षीसे एक कूटप्रश्न करना आवश्यक है । वह यह कि मैं कोई कर्म करनेकी या न करनेकी जो इच्छा करता हूँ वह इच्छा क्या मेरी इच्छाके अधीन है, या मेरा पूर्वस्वभाव पूर्वशिक्षा और पारिपाश्विक (चारों ओरकी) अवस्थाका फल है ? अर्थात् मेरी इच्छा ही क्या मेरी इच्छाकी कारण है,या वह अन्यकारणका कार्य है? कुछ सोचकर उत्तर दिया जाय तो आत्माको अवश्य ही कहना पड़ेगा कि मेरी इच्छा इच्छाके अधीन नहीं है, वह अनेक कारणोंका कार्य है। एक दृष्टान्तके द्वारा यह बात और भी स्पष्ट हो जायगी। मैं इस समय यहाँसे उठ जाऊँगा कि नहीं, इस विषयमें मेरी इच्छा क्या है, और क्यों वह वैसी ही होगी? सोचने पर देख पाऊँगा कि मेरे वर्तमान कर्म और जिसके अनुरोधसे उठनकी बात याद आई वह कर्म, इन दोनोंकी प्रयोजनीयता और हृदयग्राहिताका तारतम्य (न्यूनाधिकता), मेरी इस घड़ी जैसी देहकी अवस्था है वह और उसके अनुसार स्थिति (ठहरने) या गति (जाने) के प्रति अनुरा-. गकी न्यूनाधिकता, दूरसम्बन्धमें मेरा पूर्व स्वभाव और पूर्वशिक्षा-जिसके द्वारा मेरे हृदयकी वर्तमान अवस्था ( अर्थात् कर्मकी प्रयोजनीयता और हृदयग्राहिताके तारतम्य-बोधकी शक्ति )और गति या स्थितिकी ओर प्रवृत्तिकी न्यूनाधिकता निर्धारित हुई है, इन सब कारणोंके द्वारा मेरी इच्छाका निरूपण होगा। मेरी इच्छा इन्हीं सब कारणोंका कार्य है। पहले कार्य-कारण