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पहला अध्याय ]
कर्त्ताकी स्वतंत्रता ।
नवीन नवीन रूपसे क्यों होता है ? उस मिलनको करानेवाला कौन है? और कारण-समष्टिको वह रूपान्तर. या भावान्तर किस तरह होता है? अर्थात् वह आदि कारण केवल एक वार ही कार्य संपन्न करके क्यों नहीं क्षान्त रहता? और, कारण ही किस तरह कार्यको संपन्न करता है ? इस प्रश्नका सम्पूर्ण उत्तर देना हमारे अपूर्ण ज्ञानकी क्षमताके बाहर है। मगर तो भी इस प्रश्नको उठाये विना हमसे रहा नहीं जाता, और जबतक हम इसका उत्तर न पावेंगे, तबतक ज्ञानपिपासाकी निवृत्ति न होगी। अतएव यह अनुमान असंगत नहीं है कि जो अपूर्ण ज्ञान यह प्रश्न किये विना रह नहीं सकता, वह पूर्ण ज्ञानका ही विच्छिन्न अंश है, और उस पूर्ण ज्ञानके साथ पुनर्मिलन होनेपर ही हमारी ज्ञानकी प्यास बुझेगी, हमें पूर्ण आनन्द प्राप्त होगा।
ऊपरके प्रश्नका प्रथम भाग यह जिज्ञासा करता है कि आदिकारण जो है वह एक वार कार्य करके शान्त न होकर क्यों निरन्तर नये नये काम करता ह, और नवीन कार्यके लिए कारणसमूहका नित्य नवीन मिलन कौन कराता है ? इसके उत्तरमें केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कार्य-कारणपरंपराका यह अस्थिर और नित्य-नूतन-भाव उसी आदिकारणकी शक्ति और इच्छाका फल है। इस विराट् विश्वके प्रत्येक अणुमें वही शक्ति निहित है, और उसके बलसे प्रत्येक अणु निरन्तर व्यक्त या अव्यक्त भावसे गतिशील हो रहा है। आदिकारणकी शक्ति या इच्छाका फल उसका विकार नहीं कहा जा सकता; उसे उसका स्वभावसिद्ध कार्य ही कहना पड़ेगा।
प्रश्नके दूसरे भागका ठीक उत्तर देनेमें हम असमर्थ हैं। हमारी स्थूल दृष्टि कार्य या कारणके अभ्यन्तरमें प्रवेश नहीं कर सकती। इसी लिए, यह हम नहीं जान पाते कि कारणसे कार्य किस तरह घटित होता है । मगर हाँ, यत्न करनेसे इन सब विषयोंको हम कुछ कुछ जान सकते हैं कि किस कार्यके लिए किस किस कारणका किस तरहसे मिलन आवश्यक है, किस उपायसे कारणसमष्टिका उस तरहका मिलन घटित होता है, किस नियमसे ( अर्थात् जहाँ कार्य और कारण परिमेय है वहाँ) कितना परिमित कारण कितने परिमित कार्यमें परिणत होता है।
अब ‘कर्ताकी स्वतन्त्रता है कि नहीं?' इस कर्मक्षेत्रके प्रधान प्रश्नकी कुछ आलोचना की जायगी।