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सातवाँ अध्याय ]
ज्ञान-लाभका उद्देश्य ।
तीसरे, ज्ञानवृद्धिके साथ साथ सुखका और सुखदायक वस्तुका आदर्श क्रमश: उच्च होता रहता है, कमसे कम यह कहा जा सकता है कि उच्च होना चाहिए, किन्तु भोग और भोग्य वस्तुकी अधिकता ही उस आदर्शकी उच्चताका लक्षण नहीं है। उच्च आदर्शका सुख वही कहा जा सकता है, जो क्षणिक या अन्यका अनिष्ट करनेवाला न हो, और उच्च आदर्शकी भोग्य वस्तु वही कही जा सकती है जो उस उच्च आदर्शके सुखका कारण हो, और जिसे प्राप्त करने में पराई प्रत्याशा या अन्यका अनिष्ट न करना पड़े । इन्द्रिय-सुख जितने हैं सभी क्षणिक हैं। जब तक.इन्द्रिय-ग्राह्य वस्तुका भोग किया जाता है तभी तक उस सुखका अनुभव होता है, उसके बाद फिर वह मुख नहीं रहता, और उस बीते हुए सुखकी स्मृति सुखदायिनी न हो कर दुःख ही देती है। किन्तु सत्कर्म करनेसे उत्पन्न सुख उस तरहना क्षणिक नहीं होता और उसकी स्मृति भी सुख देनेवाली होती है । इसके सिवा इन्द्रियोंकी भोगशक्ति भी सीमाबद्ध है। इन्हीं कारणों से इन्द्रिय-सुख कभी उच्च आदर्शका सुख नहीं हो सकता । इन्द्रिय-सुखके उपयोगमें आनेवाली वस्तु भी कभी उच्च आदर्शकी भोग्यवस्तु नहीं है। उसे प्रात करनेके लिए दूसरेकी प्रत्याशा करनी पड़ती है-औरका मुँह ताकना पड़ता है। इसके सिवा पृथ्वीका परिमाण बहु विस्तृत होने पर भी अच्छे दर्जेकी भोग्य वस्तुका परिमाण असीम नहीं है। अतएव एक आदमी अगर अधिक परिमाणमें अच्छी वस्तुका भोग करेगा तो साक्षात् सम्बन्धसे अथवा प्रकारान्तरसे अन्यकी भोग्य वस्तुका परिमाण संकीर्ण करना होता है, और इसी कारण अन्यका अनिष्ट भी उसके द्वारा होता है। इस तरहकी भोग्यवस्तु उच्च आदर्शकी भोग्य वस्तु कभी नहीं हो सकती।
कुग्रन्थ-प्रचार। ___ कभी कभी ज्ञानकी वृद्धिके साथ साथ अशुभका निवारण न होकर उसके विपरीत फल होता है। इसका एक सामान्य दृष्टान्त है कुरुचिसे प्रेरित होकर लिखे गये उन साहित्य-ग्रन्थोंका अपरिमित प्रचार जिनसे कुप्रवृत्तियोंकों • उत्तेजना मिलती है। जिस समय सृष्टि नहीं हुई थी और शिक्षित लोगोंकी संख्या अल्प थी, उस समय अन्थोंका प्रचार भी थोड़ा था। इसी कारण री पुस्तकें पढ़नेके द्वारा लोगोंका अनिष्ट होनेकी सम्भावना भी कम थी।