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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
रसनाको तृप्ति देनेवाले खाद्य पदार्थको आवश्यकतासे अधिक मात्रामें तैयार करनेसे एक प्रकारसे लोगोंका लोभ बढ़ाया जाता है, धनीको अति भोजनका प्रश्रय दिया जाता है, निर्धनके लिए प्रयोजनीय आहारका अभाव खड़ा किया जाता है। अगर कोई कहे कि सुखदायक पदार्थके उपभोगकी वासना समाजमें न . रहनेसे अच्छे पदार्थ तैयार करनेके लिए कोई यत्न नहीं करेगा, और शिल्प आदि कलाविद्याओंकी उन्नति न होगी, तो इसका उत्तर यह है कि कोई वासनाओंको एकदम त्याग करनेके लिए नहीं कहता; कहनेसे भी यह बात हो नहीं सकती। तो भी वासनाका संयत होना उचित है, और वह संयतभाव धारण करनेसे जितनी मात्रामें भोगकी वासना रहेगी वही शिल्प आदि कलाविद्याओंकी उन्नति करनेमें यथेष्ट उत्साह देगी। और एक बात है । लोग अपने भोग करनेके लिए व्याकुल न होकर भक्तिभाजन और प्रीतिपात्र लोगोंके भोगके लिए अगर उत्तम पदार्थोकी खोज करें, तो उत्तम वस्तुके प्रति अनुराग दिखाना और उसे तैयार करनेके लिए उत्साह देना, दोनों काम यथेष्टरूपसे हों, और साथ ही लोग विलासी न होकर स्वार्थत्यागका पाठ भी पढ़ें। पूर्वसमयमें हिन्दू समाज और अन्य अनेक शिक्षित समाजोंमें यही भाव प्रबल था। उस समय लोग सुशोभित और सुसज्जित घर बनवानेकी इच्छको देव. मन्दिर और सर्वसाधारणके कामोंके लिए समर्पित भवन बनवा कर पूर्ण करते थे, और अपने रहनेके लिए साधारण लेकिन साफ-सुथरा हवादार घर बनवाकर सन्तोष प्राप्त करते थे और उसीको यथेष्ट समझते थे। वे लड़के-लड़कियोंको सुन्दर पोशाक पहना कर आप साधारण लेकिन सुरुचिसंगत शुद्ध वस्त्र पहनते और उसीमें सन्तुष्ट होते थे । और, इस तरह जो धन बचाया जा सकता था वह जलाशय खुदवानेमें, अतिथिशाला (धर्मशाला ) स्थापित करनेमें, अर्थात् इसी तरहके सर्वसाधारणके लिए हितकर कामोंमें खर्च किया जाता था । सभीको बड़े और सुसज्जित महलमें रहना चाहिए, चटोरी जीभको तृप्त करनेवाला भोजन करना चाहिए, शौकीनीकी बढ़िया पोशाक पहननी चाहिए, ऐसा न हुआ तो हममें सभ्यता ही क्या आई, ये ही तो सभ्यताके लक्षण हैं; ये बातें उन लोगोंकी नहीं है जो समाजका हित चाहते हैं और यथार्थ ज्ञानी हैं । स्वार्थसाधनमें तत्पर और पेशेदार लोग ही ऐसी बातें कहते हैं।