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सातवाँ अध्याय। ज्ञान-लाभका उद्देश्य ।
कोई कहते हैं, ज्ञान-लाभका उद्देश्य ज्ञानलाभसे उत्पन्न होनेवाला विशुद्ध आनन्दका अनुभव है; और कोई कहते हैं, उसका उद्देश्य हमारी अवस्थाकी उन्नति करना है। जान पड़ता है, वास्तवमें इन दोनोंको ही ज्ञानलाभका उद्देश्य कहा जा सकता है। ज्ञानलाभकी, अर्थात् सब विषयोंका निगूढ तत्त्व जाननेकी प्रवृत्ति मनुष्यके लिए स्वभावसिद्ध है । और, प्रवृत्तिमात्रका चरितार्थ होना आनन्दका कारण है, और वह आनन्द प्राप्त करनेहीके लिए प्रवृत्तिको चरितार्थ करनेकी चेष्टा होती है । अतएव इसमें संदेह नहीं कि ज्ञानलाभका एक उद्देश्य उससे उत्पन्न आनन्दका लाभ है । फिर हमारा अभाव और अपूर्णता इतनी अधिक है कि उसे पूर्ण करनेके लिए हम सदा चेष्टा करने रहते हैं । ज्ञानलाभके साथ साथ उस अभाव और अपूर्णताकी अधिकतर उपलब्धि होती है, और उसे पूर्ण करनेका उपाय भी अधिकतर अपने वशमें जान पड़ता है। अतएव यह कहना भी सुसंगत है कि अपनी अवस्थाकी उन्नति करना भी ज्ञानलाभका और एक उद्देश्य है।
संक्षेपमें कहा जा सकता है कि सब प्रकारके दुःखकी निवृत्ति और सब प्रकारके सुखकी वृद्धि ही ज्ञानलाभका उद्देश्य है । और, दुःख और सुख क्या है, इस प्रश्नके उत्तरमें संक्षेपमें कहा जा सकता है कि अभाव और अपूर्णता ही दुःख है और उसकी पूर्ति ही सुख है। यह बात इस मनुवाक्यके भी विरुद्ध नहीं है कि " परवश सभी विषय दुःख हैं, और आत्मवश सभी विषय सुख हैं।" (सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । मनु ४।१६०)।