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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय ।
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स्थान पर चढ़नेकी आशा दुराशामात्र है । रचना सीखते- सिखाते समय यह बात याद रखनी चाहिए ।
( ११ ) शिक्षाप्रणालीकी जिन कई एक बातोंको कहनेकी इच्छा थी उनमें ग्यारहवीं और अंतिम बात जातीय शिक्षा के सम्बन्धकी है ।
बहुत लोग कहते हैं, जातीय भाषा में जातीय साहित्य-दर्शन के उच्च आदर्शके अनुसार शिक्षा देनी चाहिए । फिर कोई कहते हैं, शिक्षामें जातीय भाव लाना विधिविरुद्ध है । शिक्षा सार्वभौमिक भावसे चलनी चाहिए 1ऐसा नहीं होता तो शिक्षार्थीके मनमें उदारताके बदले तंगदिली अपना डेरा जमा लेती है । ये दोनों ही बातें कुछ कुछ सच हैं, लेकिन संपूर्ण सत्य कोई नहीं ।
जहाँतक हो सके, शिक्षार्थीकी जातीय भाषामें शिक्षा दी जाय। यह किया जायगा तो शिक्षा विषय थोड़ी ही मेहनत में संपूर्णरूपसे शिक्षार्थीकी समझमें आजायँगे । उस विद्यार्थीको विजातीय भाषा सीखेनका श्रम और समझने की असुविधा नहीं भोगनी पड़ती, और जातीय साहित्य दर्शनके उच्च अदर्शकेअनुसार शिक्षा भी उसी तरह सहज में फलप्रद होती है । कारण, पूर्वसंस्कारवश शिक्षार्थीका चरित्र और मन कुछ परिमाणमें उसी आदर्शके अनुसार गठित होता है । बस, उसके अनुसार शिक्षा देनेमें उसे फिर तोड़ फोड़ कर गढ़ना नहीं पड़ता । किन्तु केवल इसीलिए विजातीय भाषा सीखनेकी अवहेला और विजातीय साहित्यदर्शनके उच्च आदर्शपर अनास्था, कभी युक्तिसंगत नहीं हो सकती । विजातीय भाषामें भी ऐसी अनेक ज्ञानगर्भ बातें रह सकती हैं जो छात्र की जातीय भाषामें न होंगी । और, यह न होने पर भी, वह भाषा हमारी ही तरहके एक जातिके मनुष्योंकी भाषा है, और उसके द्वारा हमारी ही तरहके एक जातिके मनुष्य अपने सुख दुःख आदि मनके भाव और सरल और जटिल ज्ञानकी बातें, प्रकट करते हैं - इसी लिए विजातीय भाषा मनुष्य के अनादर या उपेक्षाकी चीज नहीं है । और विजातीय उच्च आदर्श अगर स्वजातीय उच्च आदर्शके अनुरूप हो तब तो अवश्य ही आद-रणीय है, और अगर वैसा न हो तो भी आदरणीय और यथासंभव अनुकरणीय है । विजातीय उच्च आदर्श और सद्गुणका अनादर वृथा और भ्रान्त जातीय अभिमानका कार्य है । यहाँ पर यह प्रसिद्ध मनु भगवान्का वाक्य याद रखना चाहिए