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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
अन्तको परिणाममें देखा जायगा कि व्याकरण न पढ़ाकर केवल काव्यपाठके द्वारा भाषा सिखानेमें सब मिलाकर अधिक समय और श्रम लगता है। ___ तत्त्वनिर्णय या ज्ञानके प्रचारार्थ ग्रन्थ लिखना, लोगोंके मनोरञ्जन या लोगोंको इच्छानुसार चलानेके लिए वक्तता करना, अथवा रोजमर्राके साधारण काम करना इत्यादि सभी तरहके कामोंके लिए रचनाशिक्षा अर्थात् अच्छे ढंगसे संक्षेपमें सरल भाषामें मनके भाव प्रकट करनेके लिए भाषाके प्रयोगकी शिक्षा अत्यन्त प्रयोजनीय है। रचनाप्रणाली संक्षेपमें दो तरहकी होती हैवैज्ञानिक और साहित्यिक । वैज्ञानिक प्रणालीमें, वर्णित विषयको भिन्न भिन्न भागोंमें बाँटकर प्रत्येक भागकी यथानियम क्रमशः व्याख्या की जाती है। साहित्यिक प्रणालीमें, वर्णित विषयकी कुछ चुनी हुई बातें, नियमका बन्धन न रखकर जिसके बाद नो कहनेसे सुविधा हो उस तरह, ऐसे कौशलके साथ, कही जाती हैं कि उनसे पाठक न कही हुई सब बातोंको भी, कमसे कम वर्णन किये गये विषयमें जो कुछ जाननेके योग्य है, उसे भी एक तरहसे समझ ले सकते हैं।
एक दृष्टान्तके द्वारा इन दोनों प्राणालियोंका भेद स्पष्ट समझमें आ जायगा। __ मान लीजिए किसी एक छोटे जिलेका ब्यौरा लिखना किसी रचनाका उद्देश्य है । वैज्ञानिक प्रणालीसे लिखे तो उस देशका आकार, आयतन, ऊसर, नदी, पहाड़, वन, उपवन, गाँव, नगर, उद्भिद , जीवजन्तु, शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, शासनप्रथा इत्यादिका ब्यौरा क्रमशः लिखना पड़ेगा। उसीको साहित्यिक प्रणालीसे लिखें तो उक्त विषयोंमेसे कुछ प्रधान प्रधान बातें ऐसे कौशलसे वर्णन की जायेंगी कि उसके द्वारा सारे प्रदेशका एक चित्र पाठकोंके मनमें अङ्कित हो सके। वैज्ञानिक प्रणालीका लेखक पाठकको साथ लेकर वर्णित प्रदेशके सब भागोंमें घूमता है । साहित्यिक प्रणालीका लेखक पाठकको लेकर किसी निकटस्थ ऊँचे पहाड़की चोटीपर चढ़ जाता है और उँगली उठाकर वर्णित प्रदेशको एक साथ पाठकके सामने उपस्थित कर देता है। इस पिछली प्रणालीका आश्रय सुखकर है, किन्तु सबके लिए साध्य नही है। पहले कही गई प्रणाली कष्टकर होने पर भी सबके लिए साध्य है। पाठकको साथ लेकर सारे प्रदेशमें घूमना कष्टकर होने पर भी सबके लिए साध्य है, किन्तु ऊँचे पहाड़की चोटी पर चढ़ना, सो भी अकेले नहीं, पाठकको लेकर, विशेष शक्तिकी अपेक्षा रखता है। वह शक्ति जिसके नहीं है, उसके लिए उस ऊँचे