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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय ।
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कोई कोई समझ सकते हैं कि आत्मसंयम जो है वह डरपोक और आलसीका काम है । मगर यह बात भ्रमसे भरी है। क्रोध, लोभ आदि मानसिक वृत्तियोंकी उत्तेजनाले काम करना मानसिक बलहीन मनुष्यके लिए स्वभावसिद्ध है । प्रवृत्तिका दमन करना ही यथार्थ मानसिक बलका कार्य है ।
( ९ ) शिक्षाप्रणालीके सम्बन्धमें और एक बात यह है कि शिक्षा पहली अवस्थामें वाचनिक ( जबानी ) और शिक्षार्थीकी मातृभाषा में होनी चाहिए।
शिक्षार्थी जबतक पढ़ना न सीखे और अन्य भाषा न जाने, तबतक उसकी शिक्षा अवश्य ही वाचनिक और उसकी मातृभाषा में हो। कोई कोई कहते हैं, इस तरह कुछ दिन शिक्षाका काम चलना अच्छा है । और कोई कोई कहते हैं, छात्रको शीघ्र पढ़ना और अन्य भाषा सिखाकर पुस्तककी और आवश्यकताके अनुसार अन्य भाषाकी सहायतासे शिक्षा दी जाय तो थोड़े दिनों में अधिक शिक्षा प्राप्त की जा सकती है ।
भाषाकी सहायता के बिना शिक्षाका काम चल नहीं सकता । भाषा भी एक शिक्षाका विषय है । और, पुस्तक पढ़नेके सिवा अनेक देशों और अनेक समय में होनेवाले बुद्धिमानों विद्वानोंकी की हुई तत्त्वोंकी आलोचना हमारे ज्ञानगोचर नहीं हो सकती । अतएव भाषा शिक्षा और पुस्तक पाठ करनेकी शिक्षा ज्ञानलाभका प्रधान उपाय है । किन्तु कोई यह न समझ ले कि भाषा सीखना या पुस्तक पढ़ना सीखना ही शिक्षाका उद्देश्य है । शिक्षाका उद्देश्य, पहले ही कह दिया गया है कि, जगत् में अनेक वस्तुओं और विषयोंके ज्ञानका लाभ और शिक्षार्थीका अपना उत्कर्षसाधन है । भाषा सीखना और पुस्तक पढ़ना सीखना उसका उपायमात्र है । मगर ये दोनों उपाय शिक्षाकी शक्ति के अनुसार जितनी जल्दी काम में लाये जा सकें उतना ही अच्छा है
मातृभाषाकी जवानी शिक्षासे शिक्षार्थीकी शब्दों की पूँजी और वस्तुविषयक ज्ञानकी पूँजी जब कुछ जमा हो जाय, तब उसके जाने हुए शब्दों और विषयोंवाली पुस्तकें पढ़नेकी और पुस्तकोंकी बातें तथा अन्य जानी हुई बातें लिखनेकी शिक्षा देना उचित है ।
उच्चारण किये गये शब्दके भिन्न भिन्न वर्णोंका विश्लेषण, उन वर्णोंको चिह्नोंसे अंकित करना, और उन अंकित चिह्नों या अक्षरोंको मिलाकर फिर