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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय ।
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मन लगाकर उसकी आलोचना करनेकी आवश्यकता है। फिर जहाँ भिन्न भिन्न विषयोंके जुदे जुदे शिक्षक हैं वहाँ और एक विषम विपत्ति उपस्थित होती है। हरएक शिक्षक महाशय अक्सर केवल अपने पढ़ानेके विषयपर ही दृष्टि रखकर पाठका परिणाम निर्दिष्ट करते हैं, और उससे यद्यपि एक एक विषयका पाठ पढ़ने और याद करनेके लिए यथेष्ट समय रहता है, परन्तु मब विषयोंका अभ्यास करनेके लिए समय नहीं रहता।
दूसरे, शिक्षार्थीकी शक्तिके अनुसार पाठके सब विषय निर्दिष्ट होने चाहिए। सब विषय समझनेकी शक्ति बालकके नहीं रहती। अवस्था बढ़नेके साथ साथ, और शिक्षाके द्वारा क्रमशः बुद्धिका विकास होता है, और बुद्धिके विकासके अनुसार सहजसे शुरू करके क्रमशः दुरूह विषयोंकी शिक्षा देनी चाहिए । शिक्षार्थीकी योग्यताके अनुसार भिन्न भिन्न विषयोंकी शिक्षा देनेके नियमपर प्राचीन भारतमें विशेष दृष्टि रक्खी जाती थी (.)। इसी नियमको अधिकारीके भेदके अनुसार शिक्षाभेदका नियम कहते हैं। जो अधिकारी नहीं है उसके हाथसे पवित्र ब्रह्मज्ञान देनेवाले भगवद्गीता ग्रन्थकी भी ऐसी व्याख्या हो सकती है कि वह एक हिंसाद्वेषप्रणोदित वैरका बदला लेनेमें प्रवृत्त करनेवाला ग्रन्थ प्रमाणित हो जाय ।
शिक्षार्थीकी शक्तिसे अधिक विषयकी शिक्षा देना निष्फल है, इसका एक सुन्दर दृष्टान्त प्रसिद्ध शिक्षातत्त्वके ज्ञाता .च पण्डित रूसोने अपने एमिली नामक ग्रंथमें दिया है। कोई देहाती शिक्षक एक कमसिन बालकको अलकजंडर (सिकंदर ) और उसके हकीम फिलिपकी कहानी में जो नीतिकी शिक्षा पाई जासकती है उसके बारेमें उपदेश दे रहे थे। वह कहानी संक्षेपमें यह है-"दिग्विजय करनेवाले सिकंदरके एक हकीम थे, उनका नाम फिलिप था। फिलिप राजाको अधिक प्रिय थे, इसी कारण डाहके मारे एक मुसाहबने सिकंदरको इस मजमूनका एक पत्र लिखा कि उनके चिरशत्रु फारिसके बादशाह दाराकी कुमंत्रणासे फिलिप दवाके साथ उन्हें जहर पिला देंगे । सिकंदरने देखसुनकर, सोच-समझकर फिलिपके ऊपर विश्वास स्थापित किया था। एक साधारण आदमीकी बातसे उस विश्वासको विचलित न होने देकर उन्होंने पत्र पानेके दूसरे दिन हंसते हँसते वह पत्र फिलिपके हाथमें दे दिया और
(१) मनु २।११२-११६ देखो।