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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय |
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प्रधानता अवश्य ही स्वीकार करनी होगी, तब उसीके ऊपर अधिक दृष्टि रखना सब जगह सबका कर्तव्य है । ऐसा होनेसे उपकारके सिवा कोई हानि नहीं होगी । कारण, देह और मनका उत्कर्ष प्राप्त हुए बिना शिक्षासे मिला हुआ ज्ञान काममें नहीं लगाया जा सकता । किन्तु उधर देह और मनका उत्कर्ष सिद्ध होजानेसे शिक्षालब्ध ज्ञानकी मात्रा थोड़ी होने पर भी उससे एक तरह काम चला लिया जा सकता है । यहाँ पर एक साधारण दृष्टान्त देकर यह बात समझाई जायगी। किसी दूरदेशको जानेवाले यात्रीके पास क्या सामान रहनेसे अच्छा होगा ? पका हुआ अन्न- व्यंजन साथ होनेसे अच्छा होगा, या अन्न- व्यञ्जन आदि बना सकनेकी क्षमता, जरूरी वर्तन वगैरह और जरूरती सामान खरीदने लायक धन पास होनेसे अच्छा होगा ? पकाया हुआ अन्न- व्यंजन साथ होनेसे वह कितने दिन चलेगा ? तैयार भोजन वह अपने साथ ले ही कितना जायगा ? किन्तु रसोई बना सकनेकी क्षमता और जरूर - तके माफिक सामान खरीदने भरका धन सदा सब जगह उस यात्रीके काम आवेगा । उसी तरह यह आशा नहीं की जा सकती कि पहलेका मिला हुआ ज्ञान सदा सब जगह काम आवेगा, किन्तु सबल देह और परिमार्जित बुद्धि सदा सब जगह कामके समय तत्काल उपयुक्त उपायका आविष्कार करके कार्यको सुसंपन्न कर ले सकती है ।
बुद्धि न होनेपर कोरी विद्यासे कुछ काम नहीं होता । इस सम्बन्ध में एक अच्छी कहानी सुन पड़ती है । एक मोटी बुद्धिका विद्यार्थी संपूर्ण ज्योतिषशास्त्र अच्छी तरह पढ़कर परीक्षा देनेके लिए किसी राजाकी सभा में पहुँचा । राजाने अपनी हीरेकी अँगूठी मुट्ठी में लेकर दमभर बाद उस उस विद्यार्थी से प्रश्न किया कि " बताओ, हमारी मुठ्ठी में क्या है ? " विद्यार्थीको ज्योतिषशास्त्र कंठ था । उसने हिसाब लगाकर पलभरमें जान लिया कि राजाकी मुट्ठी में जो चीज है वह गोल पत्थरसे युक्त है और उसके बीच में छेद है । वह मोटी बुद्धिवाला छात्र तत्काल कह उठा - "महाराज, आपकी मुहीमें चक्कीका पाट है ।” ज्योतिषके हिसाब में भूल नहीं हुई, परन्तु उसकी मोटी बुद्धिने सब मिट्टी कर दिया । उस अल्पबुद्धि पण्डित मूर्खने यह नहीं सोचा कि मुडीके भीतर चक्कीका पाट कैसे आ सकता है ।
( २ ) शिक्षाका उद्देश्य जब शिक्षार्थीके लिए प्रयोजनीय ज्ञानका लाभ और सब अङ्गों के उत्कर्षका साधन है, तब शिक्षाप्रणाली के निरूपणके सम्ब