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ज्ञान और कर्म। [ प्रथम भाग फल छोटा होता है, मगर उसीकी कलममें बड़ा फल लगता है, जिसमें गुठली छोटी और गूदा अधिक होता है। प्राणियों में भी देखा जाता है कि पलाऊ जानवरोंमें पालनेके इतर विशेषसे दो-चार पीढ़ियों के बाद उनकी हालत भी बहुत कुछ बदल जाती है। जैसे, अच्छी तरह पालने और रखनेसे घोड़ेकी चाल क्रमशः तेज होती है, भेड़ और मुर्गेके शरीरमें क्रमशः मांस बढ़ता है, कबूतरकी चोंच बड़ी होती है। इसके सिवा किसी किसी जातिके जीव, जिनकी हड़ियों और ढीचे धरतीके भीतर पाये जाते हैं, इस समय एकदम नेस्तनाबूद हो गये हैं। भूपृष्ट अर्थात् उनकी आवासभूमिकी अवस्थाका बदलना ही उनके अस्तित्वके मिटनेका कारण अनुमान किया जा सकता है। ऐसे दृष्टान्तोंको मोटे तौर पर देखनेसे केवल इतना ही कहा जा सकता है कि एक जातिके जीवके अवस्था-भेदसे उस जातिकी उन्नति या अवनति यहाँतक हो सकती है कि उस उन्नति या अवनतिसे युक्त सब जीव एक जातिके होने पर भी उस जातिमें भिन्न भिन्न श्रेणीके जान पड़ते हैं। इसके सिवा यह नहीं कहा जा सकता कि एक जातिका जीव अन्य जातिका हो गया। क्रमविकासवादको माननेवाले लोग अपने मतका समर्थन करनेके लिए यह कहते हैं कि जीवजगत्में ऐसी अद्भुत क्रम-परम्परा देख पड़ती है कि एक जातिका जीव अपनी निकटस्थजातिके जीवसे बहुत ही थोड़ा अलग है, और कुछ ही अवस्थाभेदसे एक जाति दूसरी जातिम पहुँच सकती है (१)। वे यह भी कहते हैं कि किसी भी जातिके जीवोंम जो जीव परिवर्तित अवस्थामें जीवन-संग्रामके बीच विजय पाने योग्य प्रकृति और अंग-प्रत्यंगसे संपन्न हैं वे ही बच जाते हैं, और जो वैसी प्रकृति और अंगप्रत्यंगसे संपन्न नहीं हैं वे विनष्ट हो जाते हैं और, इसी तरह एक जातिके जीवसे, कुछ ही विभिन्न, अन्य जातिके जीवकी उत्पत्ति होती है। यह कथन टीक हो सकता है, किन्तु आश्चर्यका विषय यह है कि क्रमपरंपरासे प्रायः सभी जातियोंके जीव मौजूद हैं; जातिविलोपकी बात दृष्टान्तके द्वारा संपूर्णरूपसे नहीं प्रमाणित होती । जो हो, इस बातका निर्णय बिल्कुल ही सहज नहीं है कि क्रमविकासके द्वारा नई नई जातियोंकी सृष्टि हुई है कि नहीं। क्रमविकासवादका प्रतिवाद भी इस जगह पर अनावश्यक है; कारण
(१) Darwin's Origin of Species, Ch. I. देखो।