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ज्ञान और कर्म ।
[ प्रथम भाग
ईश्वरवादी लोगोंका यही मत है कि एक सृष्टि करनेवालेसे सब जगत्की सृष्टि हुई है। उधर एक प्रकारकी वस्तु या अल्प प्रकारकी वस्तुसे अनेक प्रकारकी वस्तु उत्पन्न होना ही निरीश्वरवादियोंके मत से सृष्टिक्रम है। दोनों ही मतोंमें एकसे अनेककी उत्पत्ति सृष्टिप्रक्रियाका मूलतत्त्व है । किस किस प्रणालीसे, किस किस नियम से, वे सब क्रियाएँ चलती है, इसका अनुशीलन ही विज्ञान- दर्शनका उद्देश्य है । वे सब प्रणालियाँ या नियम जान सकने पर हम उसके विपरीत क्रमका अनुसरण करके अनेकसे एक तक फिर पहुँच सकते हैं । एकसे अनेककी उत्पत्तिकी प्रणालीका निरूपण और उसके द्वारा अनेकसे एकमें फिर लौट आना ही ज्ञानका चरम उद्देश्य है ।
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किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि कोई क्रियाप्रणाली जानी रहनेसे ही उसके विपरीत क्रमका अनुसरण सहज या साध्य नहीं कहा जा सकता । एक गर्म और एक ठंडी चीज परस्पर मिलाकर कुछ देर रखनेसे एककी गर्मी कुछ कम होकर और दूसरेकी ठंडक कुछ बढ़कर दोनोंका उत्ताप समान हो जाता है । किन्तु दूसरी वस्तुकी नई आई हुई गर्मी बाहर निकालकर उसे पहली वस्तुमें फिर स्थापित करना सहज नहीं है ।
बहिर्जगत्में जड़की सब क्रियाएँ स्थूलपदार्थकी और ईथररूपी सूक्ष्म पदार्थ - की गति से संपन्न होती हैं । अतएव गतिके बारेमें अलोचना होना अत्यन्त आवश्यक है। गणितकी सहायतासे गति-विषयक शास्त्राने अत्यन्त विस्मयजनक विस्तार पाया है । यह शास्त्र हमारी क्षुद्र पृथिवीके पदार्थोंसे लेकर अनन्त विश्वके सुदूरवर्ती ग्रह-तारा आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले तत्त्वका निर्णय करने में लगाया जारहा है । इस समय प्रश्न उठता है कि उस गतिका मूल कारण क्या है ? कोई कोई कहते हैं, वह स्थूल पदार्थके उपादान कारण जो परमाणुपुञ्ज हैं उनका या ईथरका स्वभावसिद्ध धर्म है । कोई कहते हैं, वह जगत्क आदिकारण चैतन्यकी इच्छा है । अनेक दार्शनिकोंका यही मत है । किन्तु कोई कोई वैज्ञानिक इसकी हँसी उड़ाते हैं ( १ ) । गतिका कारण शक्ति है, और उस शक्तिका मूल अनादि अनन्त चैतन्य शक्ति है । यही बात युक्तिसिद्ध पड़ती है।
( १ ) Pearson's Grammar of Science, Ch. IV देखो ।