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चारित्रचक्रवर्ती समाधिसमाट परमपूज्य श्री १०८ दिगम्बर जैन प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराजका
* अन्तिम दिव्य सन्देश *
ओं नमः सिद्ध भ्यः। ओं नमः सिद्ध भ्यः । पञ्च भरत, पञ्च ऐरावतके भूत भविष्यत्वर्तमान काल सम्बन्धी भगवानको नमस्कार हो । तीस चौबीसी भगवानको नमस्कार हो । सीमन्धर आदि बीस तीर्थंकर भगवानको नमस्कार हो। ऋषभादि महावीर पर्यन्त चौदहसौ बावन गणधर देवाय नमः । चारण ऋद्धि धारी मुनियोंको नमस्कार हो। चौंसठ ऋद्धिधारी मुनीश्वराय नमो नमः । अन्तकृत्केवलिभ्यो नमो नमः प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थमें होने वाले १०, १० घोरोपसर्ग विजेता मुनीश्वरोंको नमस्कार हो।
( महाराजने पूछा )- मराठी मध्ये बोलू का? ( जनताने कहा हां,)।
११ अङ्ग १४ पूर्व प्रमाण शास्त्र महा समुद्र है । उसका वर्णन करनेवाले श्रुतकेवली भी नहीं हैं। उसके ज्ञाता श्रुत केवली भी नहीं हैं । उसका हमारे सदृश तुच्छ मनुष्य क्या वर्णन कर सकते हैं। जिनवाणी, सरस्वती देवी, श्रुत देवी अनन्त समुद्र तुल्य है, उसमें कहे गये जिन धर्मको जो धारण करता है, उसका कल्याण होता है । अनन्त सुख मिलता है। उससे मोक्षकी प्राप्ति होती है, ऐसा नियम है। एक अक्षर, एक ओं अक्षर, एक ओं अक्षर धारण करके जीवका कल्याण हुआ है । दो वन्दर लड़ते-लड़ते सम्मेदशिखरसे स्वर्ग गये । सेठ सुदर्शनने सद्गति पाई। सप्त व्यसनधारी अञ्जन चोर मोक्ष गया। कुत्ता महा नीच जातिका जीव जीवन्धरमुनि-जीवन्धर कुमारके उपदेशसे देव हुआ इतनी महिमा जैन धर्मकी है किन्तु जैनियोंकी श्रद्धा अपने धर्म में नहीं है । अनन्त काल से जीव पुद्गलसे भिन्न है, यह सब लोग जानते हैं । पर विश्वास नहीं करते हैं । पुद्गल भिन्न है जीव अन्य है । तुम जोव हो, पुद्गल जड़ है। उसके ज्ञान नहीं है । ज्ञान दर्शन चैतन्य जीवमें है । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पुद्गल में है । दोनोंके गुण धर्म अलग २ हैं । पुद्गलके पीछे पड़नेसे जीवकी हानि होती है । मोहनीय कर्म जीवकी क्षति करता है। जीवके पक्षसे पुद्गलका अहित है । पुद्गलसे जीवका घात होता है। अनन्त सुखरूप मोक्ष जीवको ही होता है, पुद्गलको नहीं, सब जग इसको भूला है । जीव पञ्च पापोंमें पड़ा है । दर्शन मोहनीयके उदयने सम्यक्त्वका घात किया है । चारित्र मोहनीयके उदयने संयमका घात किया है सुख प्राप्तिकी