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दिगम्बर जैन साधु आपकी जीवन दिशा वदल गई आप उसी दिन शाम की गाड़ी से कानपुर होते हुये श्री सम्मेदशिखरजी की यात्रा को चल पड़े । बुधवार की रात को सम्मेदशिखरजी के पर्वत पर भगवान के चरणों की वन्दना करते हुये जब आप श्री १००८ देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ स्वामी की टोंक पर पहुंचे वहाँ वीतरागता उमड़ पड़ी । भगवान श्री के चरणों में माथा टेक कर उन्हीं को अपना सर्वोपरि गुरु . मानकर पंचों के समक्ष दिगम्बर मुद्रा धारण की उस दिन माघ कृष्णा १ गुरुवार सम्वत्. २०१६ था समस्त पंचों ने प्रापको श्री १०८ वीरसागरजी नाम से सुशोभित किया ।
मुनि श्री सिद्धसागरजी महाराज
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आपका जन्म नाम श्री सिद्धाप्पा था। पिता का नाम मल्लप्पा था । माता का नाम चित्रव्वा.था। . जन्म ई० सन् १९२८ वैसाख शुक्ला २ को हुवा था। वैराग्य का कारण पूर्व संस्कार तथा शास्त्र :
श्रवण है।
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कोल्हापुर जिले में नांदणी में भट्टारक जिनसैनजी थे 'मुगल साम्राज्य भारत भर में फैला हुवा . था दिगम्बर मुनि प्रायः नहीं थे, दिगम्बर परम्परा . विलुप्त सी दिखती थी किन्तु सत्य धर्म का लोप कोई भी राज्य सत्ता नहीं कर सकती है श्री सिद्धप्पाजी वहाँ से नांदणी मठ में पाए अपने वैराग्य भाव श्री
भट्टारकजी से कहे तथा वैशाख शुक्ला तीज सन् १८६५ में श्री जिनसैन भट्टारकजी से क्षुल्लक दीक्षा नांदणी कोल्हापुर में ग्रहण की। आपका नाम क्षुल्लक. सिद्धसागरजी रक्खा । वहाँ से विहार कर तीर्थराज शिखरजी के दर्शनों को आये तथा पर्वतराज पर .. श्री चन्द्रप्रभुजी की टौंक पर आपने मुनि दीक्षा ली सन् १८६६ में ललित कूट पर स्वयं वस्त्रों का त्याग कर दिगम्बर मुनि बन गये । वहाँ से आपने भारत के सभी स्थानों पर: विहार किया । सन् . १९०६ में ध्यानमग्न अवस्था में शरीर का मोह छोड़कर पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए इह लोक की यात्रा समाप्त की। धन्य है वे मुनिराज ।
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